कहानी संग्रह “ये टेढ़े मेढ़े रास्ते” की एक कहानी “जो घर जारे अपना…….” की कुछ पंक्तियाँ
हमारे हिंदी कोर्स में मध्य कालीन कवियों की रचनाएं भी थीं और हिंदी अध्यापक को कबीर दास से कुछ विशेष प्रेम था। उनका वश चलता तो सबको कबीर पंथी बना देते। एक दिन उन्होंने क्लास में एक दोहा पढ़ाः
‘कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ,
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।’
फिर सबको ललकारा, “कौन इस दोहे का अर्थ बतायेगा?” पढ़ने में तेज विनोद ने तुरंत हाथ उठाया। वे मेरे से आगे वाली सीट पर बैठे थे। मेरे लिए कबीर दास को समझना कम-से-कम इस जन्म में तो असंभव था। विनोद की पीठ के पीछे छिपते हुए सिर झुका कर इष्टदेव से प्रार्थना करने लगा कि सर विनोद से ही पूछ कर काम चला लें।
लेकिन इष्टदेव ने भला मेरी प्रार्थना कब सुनी है? पता नहीं, ‘सर’ को विनोद का उठा हुआ हाथ दिखा या नहीं, डेस्क में गड़ा मेरा सिर जरूर दिख गया। जोर से डाँटते हुए पूछा, “इस दोहे में ऐसा क्या है जो इस तरह सिर झुका रखा है?”
सिर झुकाना ही मेरी मुसीबत का कारण बन गया। वैसे अब तो लगता है कि सिर उठाने से और भी ज्यादा मुसीबत होती है। खैर, उस समय चुप रहना ही ठीक लगा। ‘सर’ ने फिर डपटा। कुछ उपाय नहीं देख कर मैंने मौलिकता का सहारा लिया, “सर, इस दोहे में कुछ छपाई की अशुद्धि लगती है। शायद दूसरी पंक्ति होगी ‘जो घर जारे आपना, कोई न दे उसका साथ।’ कबीर दास को सिपाही पकड़ने आया होगा क्योंकि वे लुकाठी से वे अपना घर जलाने वाले थे।”
बोलते-बोलते मुझमें कुछ आत्मविश्वास भी आ गया था। लेकिन क्लास में जोरों का ठहाका लगा। गुस्से से कांपते हुए ‘सर’ मेरे पास आये और कान पकड़ कर मुझे सबके सामने खड़ा कर दिया।
“मुर्गा बनो! मुर्गा बनो! छपाई की अशुद्धि है? कबीर दास को सिपाही पकड़ने आ रहा था? यही पढ़ाई करते हो? दिन भर मुर्गा बने रहो।”
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“याद है, एक बार कबीर दास के एक दोहे का ‘मौलिक’ अर्थ बताने के कारण हिंदी टीचर ने तुम्हें मुर्गा बनाया था?”
”वह दिन कैसे भूल सकता हूँ? आपकी दी हुई व्याख्या भी याद है। उसी के बाद तो आप मेरे गुरु बने।”
धीरे से हँसते हुए उन्होंने कहा, “वही व्याख्या तो जिंदगी मेरी सबसे बड़ी भूल थी। अब तो तुम्हारी दी हुई व्याख्या ही ठीक लगती है। जो अपना घर जलाना चाहता है उसका साथ कोई क्यों दे? उसे तो सचमुच पकड़ कर बंद कर देना चाहिए। मैं तो औरों का भी घर जला रहा था। समाज में क्रांति का संदेश! सर्वस्व त्याग करने का साहस! क्या बचपना था। केवल साहस रखने से क्या होगा?”
मुझसे कोई जवाब नहीं बन पड़ा।
नीचे उतरने पर सरिता भाभी को आवाज दी ताकि उनसे भी विदा लूँ। उनके आने पर धीरे से कहा, “ये काफी संभल चुके हैं और समझदार भी हो गये हैं। अब कोई चिंता नहीं है।”
यह कहानी अपने समय की प्रसिद्ध पाक्षिक पत्रिका (जो कभी साप्ताहिक पत्रिका होती थी) ‘धर्मयुग’ के दिसंबर (16-31), 1993 अंक में प्रकाशित हुई थी।
पूरी कहानी मेरी पुस्तक “ये टेढ़े मेढे रास्ते” में पढ़ सकते हैं। इसमें 10 कहानियों का संग्रह है। Kindle संस्करण अमेज़न पर उपलब्ध है।
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