शुभचिन्तक मित्र 

शुभचिन्तक मित्र  ऐसे मित्रों पर व्यंग्य  है जो मित्रता निभाने के बहाने संकट में पड़े व्यक्ति की समस्या और बढ़ा देते हैं।

(हास्य-व्यंग्य)

शुभचिन्तक मित्र 

लेखक: देवेंद्र नारायण

 

शाम का समय था। चाय पीकर उठा ही था की आँखों के सामने अंधेरा छा गया और चक्कर खाकर गिर गया। घबराकर श्रीमती जी तुरंत अस्पताल ले गईं। कार से मेरे उतरने के पहले दौड़ कर व्हीलचेयर लाने चली गईं। उनको व्हीलचेयर की तरफ जाते हुए देख दरवाजे के पास खड़े एक लड़के ने दौड़ कर व्हीलचेयर पर अपना क़ब्ज़ा किया, उसे लेकर उनके साथ कार तक आया और दरवाजा खोल कर मुझे उसमें बैठने के लिए कहा। तब तक मैं कुछ संभल गया था, अपने पैरों पर चल कर जाने की कोशिश करने लगा परंतु दोनों ने रोक दिया। बाध्य होकर मुझे व्हीलचेयर मैं बैठना पड़ा।

अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में पहुंचते ही एक डॉक्टर ने आकर पूछा, “क्या बात है?”

“जी, अभी कुछ देर पहले चक्कर खाकर गिर पड़े थे।” पत्नी ने बात बता दी।

“कोई नहीं। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। अच्छा किया अस्पताल आ गए।” पत्नी उनसे कुछ पूछें उसके पहले ही वे अंतर्ध्यान हो गए थे।

कुछ मिनट बाद एक नर्स आ गई। “क्या बात है?” उसने पूछा।

“जी, अभी कुछ देर पहले चक्कर खाकर गिर पड़े थे।” पत्नी ने बात बता दी।

“कोई नहीं। अभी डॉक्टर आकर देख लेंगे।” कह कर वह भी अंतर्धान हो गई।

थोड़ी देर बाद एक दूसरे डॉक्टर आकर पूछने लगे, “क्या बात है?”

“जी, अभी कुछ देर पहले चक्कर खाकर गिर पड़े थे।” पत्नी ने बात बता दी।

““कोई नहीं। जाँच करने से कारण पता चल जाएगा।” कह कर वे डॉक्टर साहब भी अंतर्धान हो गए।

 

समझ में नहीं आ रहा था कि एक ही बात पूछ कर सब अंतर्ध्यान क्यों हो जाते हैं? श्रीमती जी के चेहरे की ओर देखा। चेहरे पर परेशानी और नाराजगी साफ-साफ झलक रही थी। सब एक ही बात पूछ रहे थे और उनको एक ही तरह का जवाब देते-देते परेशान हो जाना स्वभाविक था। मुझे अपने गाँव की एक पुरानी घटना याद आ गई। एक दिन गाँव के लोगों ने देखा कि गरीब किसान भोलू एक बैल के साथ चला रहा था। सबको पता था कि भोलू के पास अपना बैल नहीं था। किसी ने पूछ लिया, “किससे मांग कर बैल लाया है?”

“किसी से मांग करके नहीं। इसे मैंने खरीदा है।”

“खरीदा है? कहाँ से? कितने में?”

“मेले में 200 रुपए में खरीदा है।”

“अच्छा!” सिर को दाहिनी ओर झटक कर सवाल पूछने वाले ने इस तरह कहा जैसे उसको भोलू की बात पर विश्वास नहीं हो।

थोड़ा और आगे जाने के बाद एक और गाँव वाले ने पूछा, “किससे मांग कर बैल लाया है?”

“किसी से मांग करके नहीं। इसे मैंने खरीदा है।”

“खरीदा है? कहाँ से? कितने में?”

“मेले में २०० रुपए में खरीदा है।”

“अच्छा!” सिर को दाहिनी ओर झटक कर सवाल पूछने वाले ने इस तरह कहा जैसे उसको भोलू की बात पर विश्वास नहीं हो।

भोलू जल्दी से घर पहुंच कर बैल को खूंटे से बांध रहा था कि एक और आदमी ने उसे देख लिया।

“किससे मांग कर बैल लाया है?”

“किसी से मांग करके नहीं। इसे मैंने खरीदा है।”

“खरीदा है? कहाँ से? कितने में?”

“मेले में २०० रुपए में खरीदा है।”

“अच्छा!” सिर को दाहिनी ओर झटक कर सवाल पूछने वाले ने इस तरह कहा जैसे उसको भोलू की बात पर विश्वास नहीं हो।

जब बैल को खूँटे से बांधने के बाद भोलू ने एक और आदमी को अपनी ओर आते देखा तो दौड़कर कहीं चला गया। पाँच मिनट बाद ही गाँव में शोर मच गया, “भोलू कुआँ में गिर गया है।”

“भोलू कुआँ में गिर गया है!” गाँव वाले कुएं की तरफ की दौड़ने लगे। उसे निकालने के लिए कुछ लोग रस्सी लेकर भी दौड़े। दौड़ते हुए एक ने कहा, “भोलू एक अच्छा तैराक है, डूब नहीं सकता।”

जल्द ही गाँव के सब लोग कुएँ के चारों तरफ इकट्ठा हो गए। मैंने किसी को कुएँ में डूबते हुए नहीं देखा था इसलिए उत्सुकता वश बड़े-बुजुर्गों के पीछे-पीछे दौड़ते हुए वहाँ पहुँच गया।

कुआँ में रस्सी गिराते हुए एक गाँववाले ने पूछा, “अरे अभी तो तुम बैल खरीद कर आए थे। अचानक इस कुआँ में कैसे गिर पड़े? अब जल्दी से रस्सी पकड़ लो नहीं तो डूब जाओगे।”

रस्सी पकड़ कर भोलू ने पूछा, “क्या गाँव के सभी लोग आ गए हैं?”

उसके सवाल ने सबको चक्कर में डाल दिया। “हाँ, सब लोग आ गए हैं लेकिन क्यों पूछ रहे हो?”

भोलू ने जवाब दिया, “तो सब लोग एक साथ सुन लो। मैंने यह बैल सोमारी मेले से २०० रुपए में खरीदा है। आगे से कोई मुझ से बैल का दाम और कहाँ से खरीदा है, नहीं पूछना। अब रस्सी खींचो।”

 

मुझे लगा कि मैं भी अस्पताल की छत पर चढ़ जाऊँ और जब सब इकट्ठे हो जाएँ तो बता दूँ कि ‘मुझे अचानक चक्कर आ गया था इसीलिए डॉक्टर को दिखाने यहां आया हूँ।’ परंतु ऐसा करना संभव नहीं था। अस्पताल की छत पर चढ़ने का रास्ता मालूम नहीं था और श्रीमती जी मेरा हाथ पकड़े हुई थीं ताकि मैं उठ कर खड़ा नहीं हो जाऊँ।

फिर भी इस बात से तसल्ली हुई कि इमरजेंसी वार्ड होने पर भी डॉक्टर, नर्स सभी आराम से अपना काम कर रहे थे और सब लोग के पास ढाढस देने के लिए दो शब्दों का एक महत्वपूर्ण वाक्य था, “कोई नहीं”। दिल्ली शहर में इन दो शब्दों से सभी लोग परिचित हैं। जो कोई पहली बार आता है और इन दो शब्दों के उपयोग से परिचित नहीं रहता है वह भी कुछ दिनों के बाद बात-बात में कहने लगता है, “कोई नहीं”। मुझे इसका व्यक्तिगत अनुभव है। जब दिल्ली पहली बार आया था तो एक आदमी के मुँह से “कोई नहीं” सुन कर इधर-उधर देखने लगा। मुझे लगा वह आदमी कह रहा था, “कोई नहीं है”। समझ में नहीं आ रहा था ऐसा कहने की क्या जरूरत थी? हम कोई गोपनीय बात तो कर नहीं रहे थे। बोलने वाले को लग रहा था कि मैं उसकी बात पर ध्यान नहीं दे रहा हूँ। यह तो बाद में पता चला कि “कोई नहीं” “कोई बात नहीं” का छोटा रूप है। छोटा है परंतु बड़े काम का है। कवि बिहारी ने ठीक ही कहा है ‘सतससिया के दोहरा ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लागैं घाव करैं गंभीर।।’ ( जैसे ‘नावक’ नामक तीर देखने में तो बहुत छोटा होता है परंतु गहरा घाव छोड़ता हैं, उसी प्रकार कवि बिहारी की रचना “सतसई” के दोहे छोटे होते हैं परंतु बहुत ज्ञान देते हैं।) यानी, थोड़ा कहना, बहुत समझना।

 

व्हीलचेयर में बैठे-बैठे कोई 20-25 मिनट के बाद एक दूसरी नर्स आ आकर पूछी, “क्या बात है?”

“जी, अभी कुछ देर पहले चक्कर खाकर गिर पड़े थे।” पत्नी ने बात बता दी।

“कितनी देर पहले?”

अपनी घड़ी देखते हुए पत्नी ने जवाब दिया, “जी, एक घंटे से कुछ ज्यादा पहले।।”

“इतनी देर पहले चक्कर आया था और आप अभी लेकर इनको यहाँ आ रही हैं? ऐसी हालत में एक-एक मिनट भारी होता है।”

श्रीमती जी तो घबरा गईं परंतु मुझे तसल्ली हुई कि मेरे जीवन के एक-एक मिनट का भी कोई महत्व है और उस महत्व को समझने वाली एक दयालु नर्स भी है।

“जी आधे घंटे से ज्यादा तो रास्ते में लग गया और करीब आधे घंटे से हम लोग यहाँ इंतजार कर रहे हैं।”

“कोई दिक्कत नहीं। आप मरीज को लेकर मेरे पीछे-पीछे आइए।”

हम दोनों को तसल्ली हुई कि कुछ प्रगति हुई।

नर्स के पीछे-पीछे चलने के लिए मैं व्हीलचेयर से उठने लगा लेकिन पत्नी ने रोक दिया। “ऐसी हालत में आपको पैदल नहीं चलना चाहिए” कहते हुए व्हीलचेयर को धकेलने का प्रयास करना शुरू ही किया था कि वह लड़का दौड़कर आ गया। “यह मेरा काम है” कहते हुए नर्स तक पहुंचने के लिए व्हीलचेयर को जोर से धकेलने लगा। रास्ते में आने वाले लोगों को अगल-बगल हट जाने के लिए आवाज भी लगाने लगा। “किनारे हो जाइए, इमरजेंसी केस है।”

मैं समझ गया कि अब मैं मरीज हूँ और एक “इमरजेंसी केस” भी। “कोई नहीं” से “इमरजेंसी केस” बनने में करीब आधा घंटा लग गया था। बाद में मुझे बताया गया कि मैं बहुत लकी था जो इतने कम समय में इतनी प्रगति कर ली। बहुत लोगों को तो दो-ढाई घंटे भी लग जाते हैं यानी जितनी देर में आदमी हवाई जहाज से दिल्ली से मुंबई पहुँच जाता है।

 

बेड पर लेटाने के बाद “यहाँ ज्यादा देर तक नहीं रखते। यदि भर्ती करने की जरूरत हुई तो वार्ड में भेज देंगे। मैं आस-पास ही हूँ, मुझे बुला लीजिएगा” कहते हुए अस्पताल के नियमों से परिचित लड़का चला गया।

नर्स ने ब्लड प्रेशर चेक किया। कई बार किया। शायद उसे अपने पर या मशीन पर भरोसा नहीं हो रहा था। मेरे हाथ में दर्द होने लगा था लेकिन अब मैं मरीज था और डॉक्टर और नर्स के हवाले था इसलिए चुप-चाप दर्द सहता रहा। जब नर्स को तसल्ली हो गई तो “अभी डॉक्टर को बुलाती हूँ” कहते हुए बाहर जाने लगी। पत्नी ने पीछे-पीछे दौड़ते हुए पूछा, “बीपी कितना है? क्या बहुत ज्यादा है?”

नर्स ने कोई जवाब नहीं दिया। वह केवल डॉक्टर के प्रति जवाबदेह थी। मरीजों और उनके साथ आए लोगों की बात का जवाब देने लगे तो बेचारी अपने मुँह को कभी विराम ही नहीं दे पाएगी।

थोड़ी देर बाद नर्स एक डॉक्टर साहब को जो मुझे कोई कॉलेज स्टूडेंट जैसे लग रहे थे – शायद इंटर्न थे – लेकर अंदर आई। डॉक्टर साहब ने फिर से बीपी की जाँच की, दिल की जाँच की। मैं उनसे कहना चाहता था कि मुझे विश्वास है कि मैं दिल का अच्छा हूँ लेकिन चुप रहना ही ठीक लगा क्योंकि पत्नी वहीं थीं और उनको मेरा इस तरह का मजाक करना पसंद नहीं है।

जाँच करने के बाद डॉक्टर साहब ने एक अनुभवी डॉक्टर के अंदाज में पूछा, “इनका बीपी बहुत हाई है, 250/150। पहले भी कभी इस तरह का चक्कर आया है?’

मैं कहना चाहता था कि ‘इस तरह का तो नहीं लेकिन मैं अक्सर किसी न किसी चक्कर में रहता हूँ’ पर चुप रहा। कारण वही था जो मैं बता चुका हूँ।

पत्नी ने डॉक्टर साहब को बताया, “जी नहीं।”

“डायबिटीज है?”

“जी नहीं।”

“कोई हार्ट प्रॉब्लम?”

“अभी तक तो कोई शिकायत नहीं की।”

“कोई किडनी प्रॉब्लम?”

“पता नहीं।”

 

इतना सुनकर डॉक्टर साहब ने प्रिस्क्रिप्शन सुना दिया। “कोई दिक्कत नहीं। तत्काल हाई बीपी कम करने के लिए एक इंजेक्शन दिया जायेगा। सिस्टर, आप जल्दी से इंजेक्शन ले आइए।”

सिस्टर को भेजकर डॉक्टर साहब ने प्रिस्क्रिप्शन का दूसरा भाग सुनाया, “इंजेक्शन से अभी तो ब्लड प्रेशर नॉर्मल हो जाएगा। हो जाना चाहिए। (“हो जाना चाहिए” कुछ इस तरह कहा जैसे उनको विश्वास नहीं था) लेकिन हाई बीपी का कारण जानने के लिए कई टेस्ट करने पड़ेंगे। कारण जानने के बाद ही इलाज शुरू हो सकता है। इनको वार्ड में शिफ्ट किया जाएगा उसके बाद टेस्ट होगा। भर्ती के लिए मैं लिख कर दे देता हूँ।”

गौर करने की बात है कि अब मैं “कोई दिक्कत नहीं” कहने वालों के सुपुर्द था। “कोई नहीं” से एक शब्द बड़ा यह वाक्य भी दिल्ली की सांस्कृतिक धरोहर में सम्मिलित है। भरोसा देने और पाने के लिए मुझे यह ज्यादा उपयोगी लगता है।

नर्स दौड़ कर एक इंजेक्शन ले आई। ऊँची एडी का सैंडल पहनकर नर्सें को तेजी से दौड़ता देखकर मुझे अभी भी बहुत अचंभा होता है। इस अचंभे के बारे में वर्षों पहले बचपन में अपने गाँव की एक महिला से सुना था। वह इलाज के लिए हम लोगों के पास शहर में आई थी। करीब 10 दिन शहर के एक बड़े अस्पताल में भर्ती रही। अस्पताल से तो वह ठीक हो कर आ गई परंतु एक शंका के साथ। अपना अनुभव सुनाते हुए उसने बताया था, ‘अरे जे हमरा दवाई देवे सहबाबो आवत रही उ गजबे रही; पता न काईसे कीलवाला जूता पहन के पटर-पटर चलत रही।’ ( ‘मुझे दवा देने जो साहब की बीवी आती थी वाह गजब की थी। पता नहीं कैसे कीलवाला जूता पहन कर तेजी से चलती थी।’)  वे नर्स को ‘सहबाबो’ यानी साहब की बीवी कहती थी। अब जब मैं अस्पताल में भर्ती था तो मैंने तय कर लिया कि इस रहस्य का पता करके ही जाऊंगा; आखिर नर्सें नुकीली सैंडल पहन कर तेजी से कैसे चलती हैं, इतना संतुलन वे कैसे बनाए रखती हैं?  

अभी मैं रहस्य का पता लगाने के तरीके के बारे में सोच रहा था की सुई चुभने से मुंह से एक चीख निकल गई।  

“सिस्टर, धीरे से।” श्रीमती जी ने जोर से कहा लेकिन तब तक देर हो गई थी। इंजेक्शन तो लग चुका था।

इंजेक्शन लगाने के बाद “कोई दिक्कत नहीं” परंपरा के डॉक्टर और नर्स जाने लगे।

“क्या प्राइवेट रूम नहीं मिल सकता?” पत्नी ने पूछा। सब कुछ पूछने का काम मैंने पत्नी पर ही छोड़ रखा है। इसके बहुत फायदे हैं जो कभी बाद में बताऊंगा।

डॉक्टर साहब ने जवाब दिया, “मिल सकता है। आप काउंटर पर जा कर फॉर्म भर दीजिए और पैसे जमा कर दीजिए।”

“हमारे पास इंश्योरेंस पॉलिसी है। उससे काम नहीं चलेगा?”

“कितने का है और किस कंपनी का?”

जवाब सुनकर डॉक्टर साहब के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। “ठीक है। मेरा प्रिस्क्रिप्शन ले जाइए और कागजी कार्रवाई पूरी कीजिए तब तक मैं रूम मैनेजर को रूम का इंतजाम करने के लिए बोल देता हूं।” वे समझ गए थे कि मरीज लाभदायक है।

“तुम इंश्योरेंस पॉलिसी लेकर आई हो?” मुझे पता नहीं था इसलिए पूछना पड़ा।

“यह हमेशा मेरे साथ रहता है।”

सुनकर घोर आश्चर्य हुआ। कभी सोचा नहीं था कि श्रीमती जी हमेशा अपने साथ इंश्योरेंस पॉलिसी रखती हैं। कभी बताया भी नहीं।

“मुझे तो मालूम ही नहीं था कि तुम हमेशा इंश्योरेंस पॉलिसी अपने साथ रखती हो। क्यों? क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि मैं कभी भी चक्कर खाकर गिर सकता हूँ?”

“यह मेरे मोबाइल पर है।”

“बहुत स्मार्ट हो।”

“वह तो मैं हूँ ही। आपको आज पता चला? कोई बात नहीं” कहते हुए वे कागजी कार्रवाई के लिए चली गई। मुझे अपनी सफाई देने का मौका नहीं मिला। कोई नहीं। शायद ही कभी मिलता है।

40-45 मिनट में कागजी कार्रवाई भी हो गई और रूम नंबर का भी पता चल गया। मैं एक बार फिर व्हीलचेयर पर बैठ गया। पत्नी ने व्हीलचेयर को धकेलना शुरू ही किया था कि एक लड़का दौड़ता हुआ आया और व्हीलचेयर को अपने कब्जे में ले लिया। “यह मेरा काम है। कहाँ ले जाना है?” यह कोई नया लड़का था।

उसको रूम नंबर बता दिया गया। उसने अपना काम शुरू ही किया था कि पहले वाला लड़का आ गया। उसने धीरे से कुछ कहा और व्हीलचेयर अब एक बार फिर उसके कब्जे में था। दोनों को एक साथ देख कर मैं डर रहा था कि कहीं उनमें बहस न छिड़ जाए कि ‘यह मेरा मरीज है’ परंतु जिस शांति से दोनों के बीच समझौता हुआ उससे मैं वाकई में बहुत प्रभावित हो गया। अगर उसी तरह से यूक्रेन पर अधिकार की समस्या रूस और अमेरिका निपटा लेते तो इतना खून खराबा नहीं होता।

प्राइवेट रूम में पहूँच कर मैं अपने आप बिस्तर पर बैठने लगा तो लड़के ने करीब-करीब जबरदस्ती सहायता की और बिस्तर पर लिटा दिया। अभी तक व्हीलचेयर के साथ-साथ मैं भी उसके अधिकार क्षेत्र में था। मेरे बिस्तर पर लेटते ही मेरे ऊपर से उसका अधिकार हट गया और वह दरवाजे के पास जाकर पूछने लगा, “सर, अब मैं जाऊँ?”

“थैंक्स। तुमने मेरी बहुत मदद की।”

फिर भी लड़का वहीं डटा रहा। “मैडम, अब मैं जाऊँ?” लड़का होशियार था। वह जानता था कि जो बात “सर” नहीं समझ पाते हैं वह “मैडम” समझ जाती हैं। विनम्र भी था। बहुत विनम्रता से अपना “अधिकार” मांग रहा था।

मैडम समझ गयीं थीं। उसे 100  रुपए का एक नोट पकड़ते हुए कहा, “जीते रहो बेटा। तुमने बहुत मदद की है।”

जल्दी से पॉकेट में नोट रखते हुए बेटा चला गया।

 

रूम बहुत अच्छा था। मरीज के बेड के अलावा उसके साथ रहने वाले के लिए भी एक सोफा-कम-बेड था यानी दिन में सोफा और रात में बेड। दिन में अलग रूप और रात में अलग रूप का यह बहुत अच्छा उदाहरण है।

एक आदमी अस्पताल के कपड़े लेकर आया और बोला, “बाथरूम में चलिए, आपका कपड़ा बदल लेता हूँ।” मैं इस सहायता के लिए तैयार नहीं था। हड़बड़ाकर बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया। “नहीं, नहीं। यह काम मैं खुद कर लूँगा।” निराश होकर वह चला गया। सेवा के लिए पुरस्कार पाने की कोई आशा नहीं थी।

थोड़ी देर बाद दो नर्सों और एक जूनियर के साथ एक सीनियर से दिखने वाले डॉक्टर साहब आए। अक्सर देखने से ही पता चल जाता है कि कौन जूनियर है और कौन सीनियर। जूनियर जूनियर ऐसा लगता है और सीनियर सीनियर ऐसा लगता है हालाँकि एक बार मुझे बहुत धोखा हो गया था। बात बहुत पुरानी है। कॉलेज में पहला दिन था। कॉलेज की ऑफिस में एक गंजे आदमी को देखा। ‘जरूर कोई शिक्षक हैं’, सोच कर मैंने आदरपूर्वक अभिवादन किया। थोड़ी देर बाद देखा कि मेरे ही क्लास में वह गंजा आदमी भी बैठा है। अगले 6 साल तक वह मेरा सहपाठी रहा। शायद पैदाइशी गंजा था। गंजा होने का एक बहुत बड़ा फायदा है। बहुत कम उम्र में लोग गंजे को सीनियर समझने लगते हैं।

“मैं यहां का सीनियर कंसल्टेंट हूँ और ये मेरे असिस्टेंट है।” दोनों ने अपना-अपना नाम बताया। मुझे खुशी हुई कि प्राइवेट वार्ड में आते ही मेरा स्टेटस ऊपर उठ गया। अब मुझे देखने सीनियर डॉक्टर आ गए थे। सीनियर कंसलटेंट साहब ने अपना काम शुरू किया और वे जो बोलते थे उसको उनका असिस्टेंट असिस्टेंट डायरी में नोट करता जाता था।

“हाई बीपी का केस है। पहले भी कभी इस तरह का चक्कर आया है?”

पत्नी ने डॉक्टर साहब को बताया, “जी नहीं।”

“डायबिटीज है?”

“जी नहीं।”

“कोई हार्ट प्रॉब्लम?”

“अभी तक तो कोई शिकायत नहीं की।”

“कोई किडनी प्रॉब्लम?”

“पता नहीं।”

कंसल्टेंट साहब ने स्टेथिस्कोप से दिल की जाँच की। पेट को जगह-जगह दबा कर कुछ पता लगाने की कोशिश की, ठीक उसी तरह जिस तरह आम पका है या नहीं, यह जानने के लिए ग्राहक उसे कई जगह दबा-दबा कर देखता है।

उन्होंने भी अपना प्रिस्क्रिप्शन सुना दिया। “हाई बीपी का कारण जानने के लिए कई टेस्ट करने पड़ेंगे। कारण जानने के बाद ही इलाज शुरू हो सकता है। कल सुबह से जाँच शुरू होगी। सिस्टर आप को डिटेल में बता देंगी, आज रात हल्का भोजन कीजिए। उसके बाद आपको कुछ दवा दी जाएगी और एक इंजेक्शन लगाया जाएगा ताकि रात को आप आराम से सोइए। आराम आपके लिए बहुत जरूरी है। जहाँ तक हो सके कम बातचीत कीजिए।”

पत्नी (बताने की आवश्यकता नहीं कि मेरी पत्नी) की ओर देखते हुए उन्होंने कहा, “और ध्यान रखिए कि आप या आपके बच्चों के सिवा यहाँ कोई नहीं आए। कोई मित्र या रिश्तेदार इन्हें आकर डिस्टर्ब नहीं करें। आप इनका मोबाइल भी ऑफ कर दीजिए।”

डॉक्टर साहब की बात समाप्त होते ही मेरा मोबाइल श्रीमती जी के कब्जे में था।

“किसी और के आने का सवाल ही नहीं है। मैं बच्चों के सिवा किसी को खबर भी नहीं करूंगी।”

“जानकर खुशी हुई नहीं तो यहाँ ऐसे-ऐसे लोग रोगियों के साथ आते हैं जो एडमिशन के बाद सभी दोस्तों और रिश्तेदारों को सूचित कर देते हैं। कई मरीज तो स्वयं ही सबको सूचित कर देते हैं और उसके बाद हालचाल पूछने वालों का तांता लग जाता है जैसे बार-बार हालचाल पूछने से ही मरीज ठीक हो जाएगा।” संतुष्ट होकर डॉक्टर साहब अपनी टीम के साथ चले गए।

 

मुझे इलाज से ज्यादा इस बात की खुशी हुई कि कुछ दिनों तक चुपचाप आराम करने का मौका मिलेगा। बहुत दिनों से ऐसे अवसर की खोज में था।

रात को ऐसी गहरी नींद आई जैसी बहुत दिनों से नहीं आई थी। मुझे लगा कि थोड़े दिनों के लिए हर इंसान को अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए। रोगी के रूप में कुछ नहीं करना है। अपने पैरों पर चलना भी नहीं है। केवल आराम करना है। बाकी सब काम दूसरे लोगों की जिम्मेदारी है। लेकिन बहुत कम लोग ऐसे खुशकिस्मत होते हैं। मुझे भी इस तरह खुशकिस्मत होने का अवसर पहली बार मिला था। यह तो बाद में पता चला कि सदा की तरह इस बार भी मेरी खुशकिस्मती की अवधि बहुत छोटी थी।

सुबह जागने के बाद खुशकिस्मती की उस छोटी सी अवधि में सब कुछ अस्पताल की परंपरा के अनुसार हो रहा था। तीन-चार बार नर्स आई। पहले बुखार देखा और बीपी चेक किया। “कितना है?” पूछने पर संक्षेप में जवाब मिला, “अभी तो सब ठीक है।” उसने ऐसे कहा मानो कह रही हो, ”अभी तो सब ठीक है, आगे भगवान मालिक है।“

दूसरी बार वह जाँच के लिए मेरे हाथ से खून निकालने के लिए आई। उसने बहुत प्रयास किया लेकिन खून कहाँ से मिलेगा यह पता नहीं चल रहा था। जैसे पुरातत्व विभाग वाले ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई करके इतिहास जानने की कोशिश करते हैं, उसी प्रकार नर्स मेरे हाथों में खुदाई कर खून कहाँ से निकल सकता है यह जानने की कोशिश कर रही थी। इस खोज में उसने मेरे दोनों हाथों में इतना छेद किया कि मुझे एक फ़िल्म का मशहूर डायलॉग याद आ गया। मैं बोलना चाहता था लेकिन ऐसा करना उचित नहीं होगा, सोचकर चुप ही रहा। यही मनाता रहा कि भगवान नर्स को यथाशीघ्र अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता करें। परंतु वह सफल नहीं हुई। निराश हो कर वह चली गई और खून निकालने वाले एक विशेषज्ञ को लेकर आई। विशेषज्ञ ने विशेषज्ञ के तरीके से अपना काम किया। हाथ के ऊपरी भाग में जोर से एक ट्यूब बांध कर उसके नीचे थप्पड़ मारने लगा। साथ ही मुझे लगातार मुट्ठी खोलने और बंद करते रहने का आदेश भी दे दिया। थप्पड़ प्रभावकारी सिद्ध हुआ। बार-बार थप्पड़ खाने के बाद नस को प्रकट होना ही पड़ा। पी केठीक ही कहते हैं, ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते।’ उसने जितना चाहा खून निकाल लिया। कोशिश के अनुपात में सफलता भी तो मिलनी चाहिए। मेरे खून को नर्स के सुपुर्द कर विशेषज्ञ साहब शान से चले गए।

कमरे की सफाई करने के लिए एक सेवक आया। बिलकुल साफ कमरे की सफाई ऐसे कर रहा था जैसे उसकी नज़र में कमरा बिल्कुल गंदा था।

उसके बाद एक और आदमी आया जिसने बहुत ही प्रोफेशनल तरीके से बिस्तर का चादर बदला और अटेंडेंट के बिस्तर को उसके दिन के रूप यानी   सोफा में परिवर्तित कर दिया।

मेरा कपड़ा बदलने की कोशिश करने वाला एक बार फिर अस्पताल के धुले हुए कपड़े ले कर आ गया। उसके कुछ कहने के पहले ही जल्दी से उसके हाथ से कपड़ा लेकर मैं बाथ रूम चला गया।

मेरे मांगने के पहले ही मेरे लिए चाय और नाश्ता भी आ गया। हाँ, श्रीमती जी को अपने लिए विशेष रूप से ऑर्डर देना पड़ा।

मेरी इस तरह सेवा हो रही थी कि मुझे लग रहा था जैसे मैं एक नबाब हूँ जिसकी सेवा में इतने लोग लगे हैं। प्राइवेट वार्ड की बात ही कुछ और होती है।

नियम के अनुसार सुबह का राउंड लेने वाले डॉक्टर साहब भी अपने दल के साथ आये। पीछे-पीछे नर्स भी आई। जल्दी से मेरे हाल-चाल का अपडेट ले कर चले गए। जाते-जाते उन्होंने भी सख्त हिदायत दे दी, “मरीज को आराम की बेहद जरूरत है, बातचीत कम से कम करें और कोई बाहरी आदमी आकर डिस्टर्ब नहीं करे।“

जब भी नर्स आती और जाती थी, मैं उसकी चाल को गौर से देखता था। आखिर एक ऐसे प्रश्न का उत्तर जानना था जो मुझे बचपन से परेशान कर रहा था। (कहते हैं पूत का लक्षण पालने में ही पता चल जाता है।) उत्तर जानने में मैं इतना तन्मय था की मुझे पता ही नहीं लगा कि जब मैं नर्स को गौर से देखता था तो श्रीमती जी मुझे गौर से देखती थीं। अंत में उनसे नहीं रहा गया और पूछ ही लिया, “आप नर्स को बार-बार क्यों घूरते रहते हैं? मुझे तो कभी इतने गौर से नहीं देखा।”

 

बोलने का अंदाज चिर-परिचित था और ऐसी परिस्थिति में आत्मरक्षा किस तरह से की जाती है इसका ज्ञान मुझे बहुत पहले ही हो चुका था। यह कहना कि ‘मैं नर्सों की चाल समझने का प्रयत्न कर रहा था’, खतरनाक हो सकता था। परिस्थिति को देखते हुए झूठ बोलना ज्यादा ठीक लगा। “मैं देख रहा था कि इन लोगों में कितना सेवा भाव है।” खुशी की बात थी की मेरा झूठ पकड़ा नहीं गया। श्रीमती जी आश्वस्त लगीं। “यह बात तो है।” मुझे बिना मांगे कैरेक्टर सर्टिफिकेट मिल गया यह तो बाद में पता चला कि सर्टिफ़िकेट सशर्त था।

 

दस बजे के करीब श्रीमती जी ने अपना कार्यक्रम बताया। “मैं थोड़ी देर के लिए घर जा रही हूँ। कल हम लोग बहुत जल्दी में आ गए थे। पड़ोसी को भी नहीं बताया था। चेंज के लिए कपड़े भी नहीं लाई थी। मैं दो-तीन घंटे में लौट आऊंगी। कोई जरूरत हो तो घंटी बजा दीजिएगा, नर्स आ जाएगी लेकिन सेवा भाव की जाँच करने के लिए बार-बार बुलाने की जरूरत नहीं है। बच्चों को खबर कर दिया है शाम तक दोनों आ जाएंगे। मैं फोन आपके पास छोड़े जा रही हूँ लेकिन इसका उपयोग तभी कीजिएगा जब मुझसे कोई बात करनी हो। दोस्तों से बात करने की जरूरत नहीं वरना सब आकर यहाँ अड्डा जमा देंगे। डॉक्टर ने आपको आराम करने के लिए कहा है, आप केवल वही कीजिएगा। बाकी कुछ करने की जरूरत नहीं है।”

सदा की तरह संक्षेप में विस्तार के साथ मुझे निर्देश दे दिया गया था। मैंने भी आश्वासन दे दिया कि सभी कुछ अलिखित परंतु भारतीय संविधान से भी ज्यादा प्रभावशाली निर्देश के अनुसार ही करूंगा।

श्रीमती जी के जाने के बाद चादर के अंदर आँख बंद कर आराम करने लगा। बड़ी शांति मिल रही थी।

परंतु मेरी किस्मत में ‘आराम हराम है’। आज भी वही हुआ। अचानक कमरे का दरवाजा खोल एक महाशय अंदर आ गए और जोर-जोर से बोलने लगे, “सुनकर बहुत दुख हुआ कि आपको इतनी बड़ी बीमारी हो गई कि अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। जैसे ही मुझे पता चला मैं भागता हुआ आपके पास आ गया। हा हा हा हा….।”

चिंता से भरे उन शब्दों को जो हँसी के साथ समाप्त हुई सुनकर मैंने चादर हटाया और आँख खोलकर देखा तो सामने अपने मोहल्ले के सेवक राम जी नजर आए, दोनों हाथ जोड़े हुए और मुस्कुराते हुए।

 

अद्भुत प्रतिभा से संपन्न सेवक राम जी हमारे मोहल्ले को प्रभु की विशेष देन हैं। बहुत लोगों को मुस्कुराने के लिए अपनी मांसपेशियों पर जोर देना पड़ता है परंतु अपने सेवक राम जी स्वाभाविक रूप से सदा मुस्कुराते रहते हैं। बहुत लोग हँसने की बात सुनकर भी हँसने से कतराते हैं परंतु अपनी हर बात कहने के बाद हँसना सेवक राम जी का स्वाभाविक गुण है। मुझे विश्वास है कि जहाँ सामान्य बच्चे जन्म के बाद रोने लगते हैं, सेवक राम जी ठहाका लगाते हुए इस धरती पर अवतरित हुए होंगे। प्रभु ने उनको नेताओं वाला एक गुण भी दिया है। जब भी किसी से मिलने जाते हैं, दूर से ही दोनों हाथ जोड़ते हुए जाते हैं।

उनके माता-पिता जरूर बहुत दूरदर्शी रहे होंगे जो बेटे का ऐसा नाम रखा। बेटे ने भी माता-पिता को निराश नहीं किया। मोहल्ले में कहीं खुशी हो या गम, सेवक राम जी को खबर मिल जाती है और अपने नाम की सार्थकता सिद्ध करते हुए वे सेवा के लिए पहुँच जाते हैं। धीरे-धीरे लोगों को इसकी आदत पड़ गई है इसीलिए अब किसी शादी में भी उनको निमंत्रण नहीं भेजा जाता है। निमंत्रण भेजो या ना भेजो, सेवक राम जी तो आएंगे ही। बेकार में एक कार्ड बर्बाद करने की क्या जरूरत है?

खुशी हो या गम, पहुंचते ही सेवक राम जी की कोशिश रहती है की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ले। इसके लिए उन्हें विशेष कुछ नहीं करना पड़ता है, बस एक जगह बैठ कर पूछना होता है कि ‘सब कुछ ठीक चल रहा है न?’ यदि किसी की शादी होने वाली है तो पूछेंगे, ‘खाना बनाने के लिए कुक का इंतजाम तो हो चुका है? मीठे में क्या-क्या बन रहा है? वैसे आजकल लोग गरम-गरम गुलाब जामुन और रबड़ी के साथ ताजी तली हुई जलेबी बहुत पसंद करते हैं। हा हा हा हा….।’  लोगों’ के नाम पर अपनी पसंद भी बता देते है। आखिर शादी में  एक सौ एक रुपये का शगुन देना पड़ता है, मनपसंद भोजन तो मिलना ही चाहिए।

किसी के घर में एक नवजात शिशु के आने का समाचार सुनते ही सेवक राम जी पहुँच कर नाम कैसा रखना चाहिए,सुझाव देने लगते हैं। ‘नाम ऐसा होना चाहिए जिसे सुनते ही लोग वाह-वाह कर उठे। नाम से बच्चे के गुण का पता चलना चाहिए ताकि लोग कहें, जैसा नाम वैसा काम। हा हा हा हा…..।’ यह सुझाव उनके निजी अनुभव के कारण है।

 

यदि मोहल्ले में किसी की मृत्यु हो गई हो तो एक कुर्सी पर बैठ कर सेवक राम जी सब इंतजाम देखते रहते हैं और सुझाव देते रहते हैं। ‘अर्थी मजबूत है न? वजन ज्यादा है इसीलिए पूछ रहा हूँ। किस जगह ले जाना है? कहीं-कहीं बहुत भीड़ होती है, इसीलिए पूछ रहा हूँ। एक-दो जगह मेरी अच्छी जान पहचान है, लाइन में नहीं लगना पड़ेगा।’ कुछ आवश्यक जानकारी प्राप्त करने की भी कोशिश करते हैं। ‘चौथा होगा या तेरहवीं होगी? आप लोगों के यहाँ क्या रिवाज है? मुझे दो-तीन दिन के लिए कहीं बाहर जाना है इसीलिए पूछ रहा हूँ। हा हा…’ ऐसे दुखद समय में अक्सर कोई न कोई व्यक्ति ‘हा हा‘ शुरू करते ही उनका हाथ धीरे से से दबा देता है

कभी-कभी कोई चतुर आदमी पूछ लेता है, ‘आपको किस तारीख को जाना है?’ पता चल जाए तो जिस अवधि में सेवक राम जी नहीं रहेंगे उसी अवधि में चौथा या तेरहवीं, जो भी सुविधाजनक हो, संपन्न कर लिया जाएगा। लेकिन सेवक राम जी तो सभी चतुर लोगों से भी ज़्यादा चतुर हैं। ‘मेरा तुरंत जाना जरूरी नहीं है। चौथा या तेरहवीं, जो भी हो उसी के अनुसार में अपना प्रोग्राम बनाऊंगा।’

यदि किसी बड़े बुजुर्ग ने टोक दिया कि आप परेशान न होँ तो सेवक राम जी संस्कृत में अपने कर्तव्य से परिचित करा देते हैं, ‘उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे। राजद्वारे शमशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।।‘ कहने के बाद उनको लगता है कि शायद सुनने वाला उनके समान पढ़ा-लिखा नहीं हो की संस्कृत के श्लोक का अर्थ समझ सके इसलिए उसे हिंदी में समझा देते हैं, ‘उत्सव के समय, बुरे समय में, अकाल के समय में, शत्रुओं से संकट के समय में, राज दरबार में और श्मशान में जो साथ रहता है, वही बन्धु है, वही भाई है।’

सुनने वाले को मानना पड़ता है कि बात सही है। आज जब संस्कृत भाषा का उपयोग केवल शादी-ब्याह और पूजा-पाठ में ही होता है, सेवक राम जी की सेवा का ही परिणाम है कि संस्कृत का कम से कम एक श्लोक बहुत लोगों को याद हो गया है।

 

एक कुर्सी पर बैठ कर मुस्कुराते हुए सेवक राम जी ने मेरे ऊपर सवाल दागना शुरू कर दिया। “क्या हुआ है? कब से तकलीफ है? डॉक्टर ने क्या कहा? यहाँ डॉक्टर और नर्स तो ठीक हैं न? आप अकेले ही हैं? भाभी जी कहाँ गई हैं? मेरे लायक कोई सेवा? हा हा हा हा….।” वे डॉक्टर और नर्स के बारे में ऐसे पूछ रहे थे जैसे यदि वे ठीक नहीं हो तो उन्हें ठीक कर देंगे।

सेवा तो वे एक ही कर सकते थे कि मुझे अकेला छोड़ देँ लेकिन ऐसा कहना अभद्रता होती। उनके सवालों से भी ज्यादा जरूरी मेरा सवाल था, “आपको कैसे पता चला कि मैं अस्पताल में हूँ?” अपने दुश्मन का नाम जानना जरूरी था।

सेवक राम जी का जवाब सुनकर मुझे मानना पड़ा कि उनसे कोई बात छुप नहीं सकती है।

“जिस समय आप इस कमरे में आ रहे थे उसी समय हमारे एक मित्र अस्पताल से डिस्चार्ज हो रहे थे। थोड़ी दूर से ठीक-ठीक तो आपको देख नहीं पाए लेकिन अंदाज हो गया था। आज सुबह-सुबह ही फोन कर उन्होंने मुझे बताया कि शायद आप अस्पताल में भर्ती हैं। मैंने तुरंत कई बार आपको मोबाइल पर फोन किया लेकिन आपने फोन नहीं उठाया। हार कर मैंने आपके घर लैंडलाइन पर फोन किया तो आपकी नौकरानी से पता चला कि आप अस्पताल में भर्ती हैं। मुझे विश्वास हो गया कि हमारे मित्र ने आप ही को देखा था। हा हा हा हा….।”

मुझे उनके मित्र से ज्यादा अपनी नौकरानी पर और नौकरानी से भी ज्यादा अस्पताल के लोगों पर गुस्सा आ रहा था। जब इतनी देर कर दी थी तो पाँच मिनट और देर कर देते तो उनका क्या बिगड़ जाता? एक एक्सीडेंट होने से तो बच जाता।

खैर, मेरे साथ परफेक्ट टाइमिंग की वजह से सेवक राम जी अस्पताल में मेरे कमरे में कुर्सी पर बैठे हुए मेरी सेवा करने का अवसर ढूँढ रहे थे और मैं उन्हें अवसर नहीं देने का उपाय सोच रहा था। लेकिन यह बात तो माननी पड़ेगी कि जिस तरह सब जगह सेवक राम जी के खबरी हैं अगर उसी तरह हमारी जाँच एजेंसियों के पास होते तो देश में बहुत सारी समस्याएं नहीं होंती। अजीब विडंबना है, जिसके पास खबरी होने चाहिए उनके पास नहीं हैं और जिनके पास नहीं होने चाहिए उनके पास हर जगह हैं।

सेवक रामजी ने फिर पूछा, “आपने बताया नहीं, क्या हो गया कि अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।”

सिर्फ ‘पता नहीं’ कहने से पिंड नहीं छूटता इसलिए बता ही दिया। “कल शाम को चक्कर आ गया था, शायद हाई बीपी के कारण। पत्नी दिखाने के लिए यहाँ लायीं तो डाक्टरों ने जाँच के लिए भर्ती कर लिया। कोई विशेष बात नहीं है, एक दो दिन में डिस्चार्ज कर देंगे।”

 

ना चाहते हुए भी मैंने उन्हें सेवा का मौका दे दिया। “अरे भई, डॉक्टर क्या जाँच करके बताएंगे? मैं वैसे ही बता देता हूँ। चक्कर ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ने से भी आ सकता है और बहुत गिरने से भी आ सकता है। मेरी बात मानिए, अंग्रेजी दवा के चक्कर में मत पड़िए। मेरी जान पहचान के एक वैद्य जी हैं। नाड़ी देख कर सभी बीमारी का पता लगा लेते हैं और उनकी दवासे ठीक नहीं होने का कोई सवाल ही नहीं है। आप डिस्चार्ज हो जाइए फिर मैं आपको उनके पास ले चलूंगा। ठीक है न? हा हा हा हा…..।”

मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। डॉक्टर और पत्नी की सलाह को याद कर आँख बंद कर चुपचाप लेटा रहा।

“क्या हो गया? तबीयत ठीक नहीं लग रही है क्या?”

“तबीयत ठीक है। डॉक्टर ने आराम करने और कम बोलने के लिए कहा है इसलिए चुपचाप लेटा हूँ।”

सेवक राम जी को यह सूचना बहुत अच्छी लगी। “डॉक्टर ने बिल्कुल ठीक कहा है। लेकिन ऐसी स्थिति में आप को अकेले नहीं रहना चाहिए। नाते-रिश्तेदार आकर हाल-चाल पूछ-पूछ कर परेशान कर सकते हैं। भाभी जी कहाँ है? उन्हें आप को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।”

इसका भी जवाब देना आवश्यक था। “थोड़ी देर के लिए घर गई हैं।”

“घर गई हैं? कितनी देर पहले?”

“कोई एक घंटा हो गया।”

“तब तो उन्हें आने में कम से कम एक डेढ़ घंटा और लगेगा। अच्छा हुआ मैं आ गया। आप निश्चिंत होकर आराम कीजिए। हा हा हा हा….।”

 

मैं फिर आँख बंद कर आराम करने लगा लेकिन निश्चिंत नहीं हो सका। आँख बंद करते ही एक भजन सुनाई देने लगा। ‘ओम जय जगदीश हरे, प्रभु जय जगदीश हरे।’ आँख खोल कर मैं बाएं-दाएं देखने लगा कि किधर से आवाज आ रही है। सोचने लगा, ‘क्या अस्पताल में मरीजों के जल्दी ठीक होने के लिए पूजा-पाठ भी होता है?’ सेवक राम जी की ओर देखा तो पता चला कि यह प्रार्थना उनका मोबाइल कर रहा था। वे बातचीत में व्यस्त हो गए। शायद फोन करने वाले ने पूछा था कि वे कहाँ हैं। “अरे, अपने घनिष्ठ मित्र नारायण जी अस्पताल में भर्ती है। कल शाम को इनको चक्कर आ गया था इसलिए जाँच-पड़ताल के लिए डॉक्टरों ने भर्ती कर लिया है। डॉक्टर ने इन्हें कम बोलने और आराम करने के लिए कहा है। अकेले हैं इसलिए मैं रुक गया ताकि नाते-रिश्तेदार आकर परेशान ना करें। हा हा हा हा….कोई बात नहीं, आप भी आ जाइए। दो लोग रहेंगे तो संकट में ज्यादा उपयोगी होंगे। इस अस्पताल में आना थोड़ा मुश्किल है। नहीं, नहीं। मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। कहीं होती ही नहीं है। आप को अंदर आने का एक आसान उपाय बता देता हूँ। अच्छा, आपके साथ हरिमोहन जी भी हैं? कोई दिक्कत नहीं, उनको भी ले ले आइये। एक से भले दो और दो से भले तीन। हा हा हा हा….।” अगले कुछ मिनट तक वे अस्पताल में आने का आसान उपाय और मेरे कमरे का पता बताते रहे। ‘हा हा हा हा…..’  से बातचीत समाप्त हुई।

“अपने मनोहर लाल जी का फोन था। यहीं पास से फोन कर रहे थे। आपको चक्कर आ गया था यह सुनकर बहुत चिंतित हो गए और देखने आने की जिद करने लगे। अब ऐसे में मैं मना भी नहीं कर सकता था। ठीक कहा न? मित्र ही मित्र के काम आता है। आप आराम कीजिए। हा हा हा हा….।”

“जी।” इससे कम क्या कहता? फिर आँखें बंद कर आने वाली मुसीबत के लिए अपने को तैयार करने लगा। कहते हैं, मुसीबत अकेले नहीं आती। मेरे पास तो एक आ गई थी और दो और को निमंत्रण भेज चूकी थी।

थोड़ी देर में मुझे आराम करने मैं सहायता देने के लिए सेवक राम जी के दोनों साथी आ गए। आते ही पूछने लगे, “क्या हुआ? कब हुआ? कैसे हुआ? क्यों हुआ? कब तक यहाँ रहना है? डॉक्टर क्या कह रहे हैं? कोई चिंता की बात तो नहीं है?कोई बात नहीं। आप आराम कीजिए। हम लोग सेवक राम जी से सब पूछ लेंगे।”

 

तीनों हाई ब्लड प्रेशर पर अपना-अपना ज्ञान बांटने लगे। ऐसा लग रहा था मानो वे ब्लड प्रेशर पर किसी गोष्ठी में भाग ले रहे हैं। लेकिन इस तरह की गोष्ठी में बगैर स्नैक्स और चाय आवश्यक गंभीरता नहीं आती है।

“यहाँ स्नैक्स और चाय  कैसे मंगाते हैं?” सेवक राम जी ने पूछा।

जबाब नहीं मिला तो वे मेरे पास आकर बोले, “आप ही से पूछ रहा हूँ।’

आँख खोल कर मैंने पूछा, “क्या आप मुझसे कुछ पूछ रहे हैं?”

“जी हाँ, और किससे पूछूँ? यहाँ स्नैक्स और चाय कैसे मंगाते हैं?”

“पता नहीं” कह कर मैंने अपनी आँखे बंद कर ली।”

“कोई नहीं। आप आराम कीजिये। मैं पता कर लूँगा।”

 

तभी वार्ड का चौकीदार आ गया। “मरीज के पास एक आदमी से ज्यादा नहीं रह सकता। कृपया फालतू लोग यहाँ से चले जाएँ।” मैंने राहत की सांस ली और कृतज्ञता से चौकीदार की तरफ देखा परंतु उसने मेरी तरफ नहीं देखा।

“फालतू लोग? यहां आपको फालतू नजर आ रहा है? यहाँ तो मुझे बुलाया गया।” मनोहर लाल जी की आवाज थी।”

“मुझे भी।” हरिमोहन जी ने भी स्थिति स्पष्ट कर दी।

मैं सेवक राम जी की तरफ देख रहा था। वे क्या कहेंगे? उन्हें तो किसी ने नहीं बुलाया था परंतु ऐसी परिस्थिति का सामना कैसे किया जाता है, इसका उनको पर्याप्त अनुभव है। वे उठ कर चौकीदार के पास गए और उसके कंधे पर हाथ रखकर एक कोने में ले गए। एक पॉकेट से कुछ निकाला और चौकीदार के पॉकेट में डाल दिया और धीमी आवाज में कुछ कहा। चौकीदार सिर हिला कर चला गया। आज पता चला कि विशेष परिस्थिति में सेवक राम जी सेवा करने के लिए अपने पास से भी पैसे खर्च कर सकते हैं

थोड़ी देर बाद एक लड़का तीन कप चाय और तीन प्लेट में समोसे लेकर आया। “आपको आराम करना चाहिए इसलिए आपके लिए नहीं मंगवाया।” मुझे संबोधित कर सेवक राम जी ने कारण स्पष्ट कर दिया। टेबल पर सब कुछ  रखकर लडके ने बिल आगे बढ़ा दिया। उसे पता नहीं था पेमेंट कौन करेगा। मैं अपनी आँखों से संकट की उस घड़ी का साक्षी बनना चाहता था। सेवक राम जी ने लड़के को सुझाव दिया, “इसे अस्पताल के बिल में जोड़ देना।” लड़का रोज़ ऐसी परिस्थितियों का सामना करता था। नियम बता दिया, “अस्पताल के बिल में केवल मरीज के खाने-पीने की चीजों का खर्चा डाला जाता सकता है। आपके लिए जो आया है उसका नकद भुगतान करना पड़ेगा।”

सेवक राम जी ने मुझसे पूछा, “आपके पास तो पैसे होंगे। इसे दे दीजिए। मेरे पास पूरे पैसे नहीं हैं।”

    “जी नहीं, मेरे पास कुछ भी नहीं है.” सचमुच मेरे पास पैसे नहीं थे।

“यह तो बहुत गलत बात है। कुछ पैसा तो हर समय अपने पास रखना  चाहिए। पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए।देखता हूँ, क्या किया जाए। आप आराम कीजिए।”

अंत में तीनों ने आपस में चंदा कर बिल का भुगतान कर दिया।

ब्लड प्रेशर पर गोष्ठी पुनः आरंभ हो गयी।

“आज कल जिंदगी में बढ़ता हुआ टेंशन ब्लड प्रेशर का बहुत बड़ा कारण है।”

“लेकिन नारायण जी को तो कोई टेंशन नहीं होना चाहिए। भगवान का दिया हुआ सब कुछ इनके पास है। टेंशन किस बात की? हा हा हा हा…..।”

“बहुत बार आदमी अपने टेंशन को दूसरे के सामने प्रकट नहीं करता। सब कुछ होते हुए भी टेंशन हो सकता है या यूँ कहें कि बहुत से लोग अपने टेंशन के कारण अंदर ही अंदर घुटते हैं परन्तु बाहर से मुस्कुराते रहते हैं।” शायद घनश्याम जी ने अपना अनुभव बताया।

“आप बहुत चिंता तो नहीं करते?” मनोहर लाल जी ने प्रश्न सीधे मुझ से ही पूछा था। उत्तर देना ही पड़ा।

“नहीं। कोई खास नहीं।”

“वही तो। आपके ब्लड प्रेशर का कारण कुछ और हो सकता है, जैसे कोलेस्ट्रॉल का बढ़ना। आपका कोलेस्ट्रॉल कितना है? हा हा हा हा….।”

“मालूम नहीं।” मुझे सचमुच मालूम नहीं था।

“मालूम होना चाहिए। शायद आप रेगुलर ब्लड टेस्ट नहीं कराते। साल में कम से कम एक बार जरूर करवाना चाहिए। यह बहुत जरूरी है।”

“जी, आगे से ध्यान रखूँगा।”

“बहुत ज्यादा ब्लड प्रेशर बढ़ने से ब्रेन हेमरेज भी हो सकता है। मेरे भाई के साले का डेथ ब्रेन हेमरेज से हुआ था। बेचारा भरी जवानी में चला गया।”

“बड़े दुख की बात है। शादी-शुदा था? कितने बच्चे छोड़ गया? बेचारे अनाथ हो गए। हा हा हा हा…..।”

‘तीन बच्चे।”

“यह तो और भी बड़े दुख की बात है। आजकल के जमाने में हर होशियार आदमी दो से ज्यादा बच्चे नहीं पैदा करता। देख रहे हैं, इस देश की आबादी कितनी तेजी से बढ़ रही है?”

“ब्लड प्रेशर जेनेटिक कारण से भी होता है। माँ-बाप में से किसी को ब्लड प्रेशर रहा हो तो बच्चों में ब्लड प्रेशर की बीमारी की संभावना ज्यादा होती है।”

“आपके माता-पिता मैं से किसी को ब्लड प्रेशर तो नहीं था?” यह प्रश्न भी मुझसे ही पूछा गया था।

‘पता नहीं।” मुझे सचमुच पता नहीं था

“कोई नहीं। अब अस्पताल में आ गए हैं तो सब बात का पता चल जाएगा। हा हा हा हा…..।”

सोच रहा था पूछूँ कि मेरे माता-पिता में से किसी को यह बीमारी थी या नहीं यह मेरी जाँच से कैसे पता चलेगा लेकिन चुप ही रहा। डॉक्टर ने आराम करने को कहा था। मुझे डॉक्टर की बात पर ही ध्यान देना था।

कोई उत्तर न पाकर सेवक राम जी आश्वस्त होकर बोले, “लगता है सो गए हैं। बहुत अच्छी बात है। जितना सोयेंगे उतना ही मन शांत होगा और ब्लड प्रेशर जल्दी नार्मल हो जाएगा। हा हा हा हा…..।”

ब्लड प्रेशर पर गोष्ठी समाप्त होते-होते चाय और समोसा भी समाप्त हो चुका था।

 

अब मेरे मित्रों को उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव की याद आ गई।

     “आपका क्या ख्याल है? कौन जीतेगा? योगी-मोदी या अखिलेश यादव?”

“योगी-मोदी जीत तो जाएंगे परंतु जीत वैसी शानदार नहीं होगी जैसी 2017 में हुई थी?”

‘क्यों?”

“अरे भाई, लोगों के लिए कुछ भी कर लो, कितनी भी सुविधा दे दो, कितना भी विकास कर लो लेकिन जब अपने समुदाय और जात की साख खतरे में हो तो लोग सब कुछ भूल कर अपने समुदाय या जाति के उम्मीदवारों ही वोट देते हैं।   

    “बड़े दुख की बात है, आज के जमाने में भी लोग जात-पात से ऊपर नहीं उठ रहे हैं।”

 “हाँ, वह तो है ही।”

“नारायण जी, आपका क्या विचार है? कब हम संकीर्ण विचारधारा से ऊपर उठेंगे?”

प्रश्न मुझसे किया गया था लेकिन जवाब तो मुझे खुद ही मालूम नहीं था, उनको क्य बताता? चुप ही रहा।

“सो रहे हैं। डिस्टर्ब करना ठीक नहीं है।” यह हरिमोहन जी की आवाज़ थी।

“लगता तो ऐसा ही है फिर भी तसल्ली के लिए पूछ लेते हैं। हा हा हा हा….। नारायण जी आप सो रहे हैं न?”

मैंने कोई जवाब नहीं दिया।

“आप ठीक ही कह रहे थे। पूछने से यकीन हो गया। हमलोगों के यहाँ रहने से निश्चिंत हो कर सो रहे हैं नहीं तो हमेशा खटका लगा रहता कि कहीं कोई आकर डिस्टर्ब न कर दे। हा हा हा हा….।”

“सही बात है। नारायण जी को केवल आराम करना चाहिए।”

 

जब से मेरे मित्र कमरे में आए थे तब से मैं वही करने की कोशिश कर रहा था परंतु सफलता नहीं मिल रही थी। आश्वासन जरूर मिल रहा था।

मैं आँखे बंद कर सर से पांव तक अपने को ढक कर चुपचाप पड़ा रहा।

किसी के पास उत्तर प्रदेश की राजनीति का पूरा ज्ञान नहीं था इसलिए वे विश्व की राजनीति पर विमर्श करने लगे।

“आखिर पुतिन ने यूक्रेन पर आक्रमण कर ही दिया लेकिन क्यों किया? हा हा हा ह…..।”

“किसकी गलती है? पुतिन की? बाइडेन की ? या व्लादिमीर ज़ेलेंस्की की?”

“यह व्लादिमीर ज़ेलेंस्की कौन है?”

“लगता है आप टीवी नहीं देखते।”

“आप देखते हैं न, बता दीजिए।”

“ये यूक्रेन के राष्ट्रपति हैं।”

“यूक्रेन कहाँ पर है?”

“रशिया और पोलैंड के बीच में एक देश है।”

“अच्छा। यूरोप में है कि एशिया में?”

“आपको तो कुछ भी नहीं मालूम है। यूरोप में है।”

“खैर, असली मुद्दा यह है कि पुतिन ने आक्रमण क्यों किया?”

“ठीक-ठीक तो मालूम नहीं। नारायण जी से पूछ लेते हैं। आपको मालूम है नारायण जी।”

मैं आँख बंद करके चुपचाप लेटा रहा। कहते हैं कि अज्ञान आनंद है। मैं कहता हूँ कि कभी-कभी ज्ञान होने पर भी अज्ञानता दिखाना अत्यंत लाभदायक होता है और आनंददायक भी।

“अभी तक सो रहे हैं। डिस्टर्ब करना ठीक नहीं है। जितना आराम करेंगे उतना ही जल्दी ठीक हो जाएंगे।” हरिमोहन जी ने मेरी सहायता की।

 

अब मित्रगण यूक्रेन की यात्रा से अपने देश में वापस आ गए और देश की समस्याओं पर एक बार फिर विचार-विमर्श होने लगा। सब अपना-अपना अनुभव सुनाने लगे।

“सड़क पर चलना कितना मुश्किल हो गया है। कोई डिसिप्लिन मानने को तैयार नहीं है। सबको इतनी जल्दी है की बाये-दायें, जहाँ भी जगह मिले ओवरटेक करने लगते हैं। बहुत से लोग तो ट्रैफिक की रेड लाइट की भी परवाह नहीं करते। जब मैं थ्री-व्हीलर पर बैठकर कहीं जाता हूँ तो लगता है जान हथेली पर लेकर जा रहा हूँ।”

“आप ठीक कहते हैं। अपने देश में डिसिप्लिन की बहुत कमी है। जहाँ ‘नो पार्किंग’ का बोर्ड लगा रहता है वहाँ लोग अपनी गाड़ी जरूर लगा देते हैं। जहाँ हॉर्न बजाना मना है वहाँ भी हॉर्न बजाते रहते हैं।”

“देश में जब तक दंड नहीं हो तब तक लोग किसी कानून को मानने को तैयार नहीं रहते। सब समझते हैं कि नियम-कानून दूसरों के लिए उनके लिए नहीं।”

‘वीआईपी कल्चर का नतीजा है भाई, सब लोग वीआईपी स्टेटस चाहते हैं।’

“बिलकुल ठीक कहा आपने। अपने ही देश के लोग जब दूसरे देशों में जाते हैं तो कितने डिसिप्लिन से रहते हैं।’

“सो तो है।”

 

कुछ मिनट के लिए शांति हो गई। शायद इतने विषयों पर चर्चा करते-करते थक गए थे। घनश्याम जी ने चुप्पी तोड़ी, “अब हमें चलना चाहिए लंच का समय हो गया है।”

“दिमाग खराब हो गया है क्या? यहाँ एयर कंडीशंड कमरे में बैठे हैं इसलिए पता नहीं चल रहा है कि बाहर इतनी भयंकर गर्मी पड़ रही है। ऐसे में बाहर जाना बहुत खतरनाक हो सकता है। अक्लमंदी इसी में है की दोपहर का भोजन यहीं कर लें और गर्मी कम हो जाए तो बाहर निकलें। हा हा हा हा….।”

“लंच के लिए अपने पास पैसे नहीं हैं।” यह मनोहर लाल जी की आवाज़ थी।

“अरे पैसे की चिंता करते हो? भाभीजी आती ही होंगी। लंच के समय हम लोगो को बिना खिलाए जाने नहीं देंगीं वह भी इस भयंकर गर्मी में। हा हा हा हा….।” सेवक राम जी ने सबको आश्वस्त कर दिया।

सब लोग “भाभीजी” का इंतजार करने लगे।       

 

अचानक मनोहरलाल जी एक गाना गुनगुनाने लगे, ‘मित्र मित्र न रहा….”

बाकी दोनों पूछने लगे, “क्या किसी मित्र ने आपको धोखा दिया है क्या।’

अरे नहीं मैं तो यूँ ही गुनगुना रहा था।”

“मुझे मित्र और दुश्मन की बहुत अच्छी पहचान है। मेरा तो मानना है कि जो दुख और सुख में साथ दे वही मित्र है। ‘उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे। राजद्वारे शमशाने….”

लेकिन उनके “श्मशान घाट’ पहुंचते ही दो घटना घट गयी। एक घटना जिसे आप दुर्घटना भी कह सकते हैं, यह थी कि मनोहरलाल जी के मोबाइल से भगवान श्रीकृष्ण की अमर वाणी “नैनं छिंदन्ती शस्त्राणि, नैनं दहति पावक:” की आवाज आने लगी दूसरी घटना यह थी की अचानक दरवाजा खोलकर कोई तेजी से मेरी तरफ आने लगा। पैरों की थाप से, बिना आँख खोले ही, मैं समझ गया कि श्रीमती जी वापस आ गयीं हैं।

तेजी से मेरे पास आकर मेरा हाथ उठाकर पूछने लगी “आप ठीक तो हैं?”

मैंने आँख खोलकर देखा। उनकी आँखों में थे। आँसू तो सुख और दुख दोनों में आ जाते हैं। शायद उनकी आँखों के आँसू पहले दुख के थे और अब मेरी खुली आँखों को देखकर खुशी के आँसू में बदल चूके थे।

उनकी नज़र मेरे “मित्रों” पर पड़ी। तीनों हाथ जोड़कर खड़े हुए अपना परिचय देने लगे।

“भाभी जी, नमस्कार। आप मुझे तो पहचानती ही होंगी। मैं सेवक राम। इनकी बीमारी के बारे में सुनते ही मैं दौड़ा चला आया ताकि इस संकट की घड़ी में कुछ काम आ सकूँ। जब मैं आया तो ये बिलकुल अकेले थे। ऐसी हालत में अकेले नहीं छोड़ना चाहिए। मेरे यहाँ आने से आपके पति निश्चिंत होकर आराम करने लगे और सो गए। मुझे खुशी है कि मैं इनके कुछ काम आ सका। हा हा हा हा….।”

“भाभी जी, नमस्कार। मैं मनोहर लाल, सेवक राम जी का मित्र इसलिए नारायण जी का भी दोस्त। मित्र का मित्र भी मित्र होता है और संकट के समय मित्र का साथ देना उसका कर्तव्य है।’

“भाभी जी, नमस्कार। मैं घनश्याम दास, मनोहर लाल का घनिष्ट दोस्त। जहाँ मनोहर लाल वहाँ मैं।”

“भाभी जी” ने अपने तीनों नए-पुराने देवरों का अभिवादन स्वीकार किया और टेबल पर पड़े कप-प्लेटों का निरीक्षण करते हुए कहा, “धन्यवाद। अब तो मैं आ गयी हूँ”।

समझने वालों के लिए इशारा काफी था। लेकिन केवल समझने वालों के लिए। सेवक राम जी बैठे रहे। शायद उनको विश्वास कि “भाभी जी” उन लोगो को लंच के बगैर नहीं जाने देंगीं और ऐसी भयंकर गर्मी में तो बिल्कुल ही नहीं। वे बैठे रहे इसलिए उनके मित्र और मित्र के मित्र भी बैठे रहे। सबको एक ही विश्वास था। मैं आने वाले दृश्य का इंतजार कर रहा था।

“आप लोग यहाँ एक बहुत बड़ा खतरा लेकर आए हैं।” यह श्रीमती जी की आवाज़ थी।

“क्यों? क्या हुआ? कैसा खतरा? बताइए मैं तो खतरों का पुराना खिलाड़ी हूँ। हा हा हा हा….।”

“खतरा बहुत बड़ा है। इसके सामने खतरों के पुराने खिलाड़ी भी डर जाते हैं। अभी जब मैं आ रही थी तो पता चला कि इस वार्ड में, बल्कि इस अस्पताल में, कोरोना के बहुत सारे मरीज भर्ती हो गए हैं। यह फ्लोर तो अब उनके लिए ही रिज़र्व हो गया है। इनको भी शायद यहाँ से शिफ्ट कर देंगे। आप लोगो ने बूस्टर डोज तो ले लिया है न? यदि ले लिया है तो ज्यादा डरने की जरूरत नहीं है।”

    सेवक राम जी बेहद घबरा गए। उठते हुए बोले, “नहीं, मैंने तो अभी तक नहीं लिया है।”

उनके मित्र और मित्र के मित्र भी खड़े हो गए।

“मैंने भी नहीं लिया है।”

“मैंने भी नहीं लिया है।”

“मैं चलता हूँ मुझे एक आवश्यक काम याद आ गया है। अपना ध्यान रखिएगा”, कहते हुए सेवक राम जी जाने लगे।

“लेकिन बाहर बहुत भयंकर गर्मी पड़ रही है। इतनी गर्मी में बाहर जाना ठीक नहीं है।” श्रीमती जी ने उनको बाहर के खतरे से भी परिचित करा दिया।

“भाभी जी, गर्मी का मौसम है तो गर्मी पड़ेगी ही लेकिन उसके कारण ज़रूरी काम तो नहीं टाला जा सकता। आपके आ जाने से हम लोग निश्चित होकर जा सकते हैं।” सेवक राम जी ने अपनी मजबूरी बता दी।

“मैं भी चलता हूँ मैं तो जिस काम के लिए घर से निकला था वह भूल ही गया था।” मनोहर लाल जी ने भी अपनी मजबूरी बता दी।

हरिमोहन जी को भी अचानक एक आवश्यक काम याद आ गया।

 

तीनों जल्दी से बाहर चले गए। अपने स्वभाव के विपरीत सेवक राम जी ने जाते-जाते यह नहीं कहा कि ‘जब भी मेरी सेवा की जरूरत हो बुला लीजियेगा’। वे तो जाने की इतनी जल्दी में थे कि ‘हा हा हा हा’ भी भूल गए।

   उनके जाने के बाद मैंने घबराते हुए कहा, “बूस्टर डोज तो हमलोगों ने भी नहीं लिया है।”

मुस्कुराते हुए पत्नी ने जवाब दिया, “घबराने की कोई जरूरत नहीं है। कोरोना से भी खतरनाक वायरस इस समय लिफ़्ट से नीचे जा रहें होंगे।”

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लेखक की 10 कहानियों का संग्रह “ये टेढ़े मेढ़े रास्ते” (पेपरबैक) Amazon और Flipkart पर उपलब्ध है। ईबुक संस्करण Amazon पर उपलब्ध है। “शुभचिंतक मित्र” इस कहानी संग्रह में सम्मिलित नहीं है।

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शुभचिंतक मित्र

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Written by Devendra Narain
Date of birth: January 1, 1941 Educational qualification: Master of Arts (First Class) in Political Science Visiting Fellow: (one year, 1978-79), University of Oxford, UK. Job Experience: Teaching job: Lecturer in Political Science, Patna University (February 1963 to October 1965) Indian Revenue Service: November 1965 to December 2000. Important positions held in Government of India: Head of the Project Appraisal Division (Planning Commission), Head of the Project Monitoring Division and Joint Secretary/Additional Secretary (Department of Programme Implementation), Chief Commissioner of Income Tax and Member, Appellate Tribunal for Forfeited Property. Retired from Government of India on December 31, 2002, as Member, Appellate Tribunal for Forfeited Property. Experience as trainer: more than 50 national and international training programmes on project management International Experience: Indian member of Inter-governmental committee on project management system by the Commonwealth Secretariat in 1985; Member of Indian delegation to the (erstwhile) Soviet Union (1986) Area of expertise: Project Management (ex-ante Project Appraisal, CBA, Monitoring, ex-post evaluation). Experience as author: Co-author of a book on Indian Constitution in 1970 (now out of print); More than two dozen articles on different aspects of project management; 11 stories (10 satirical and one serious) in English and Hindi, published in leading magazines and a leading Hindi newspaper. Presently writing articles on social, political, economic and administrative issues available on my website and LinkedIn. Website: https://www.devendranarain.com Present on social media (Facebook, LinkedIn, Instagram, Twitter, etc.) Published collection of short stories in Hindi: "ये टेढ़े मेढ़े रास्ते". Paperback available on Amazon and Flipkart; ebook available on Amazon.