मंथरा की व्यथा कथा
(मंथरा, जिस रूप में रामानंद सागर ने टीवी धारावाहिक “रामायण” में दिखाया था)
एक समाचार पत्र के संपादक के नाम पत्र
श्रीमान संपादक जी,
विगत रात्रि मेरे पास मंथरा जी आईं थीं। यह पत्र मैं उन्हीं के अनुरोध पर भेज रहा हूँ।
मैंने उनको पहचान लिया क्योंकि 1987 में दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक “रामायण” में रामानंद सागर जी ने जैसा उन्हें दिखाया था वैसी ही थीं। सच कहूँ तो उनको देखकर भयभीत हो गया था। मानव रूप में आत्मा अर्थात भूत को देख कर कोई भी भयभीत हो जाएगा।
वे समझ गईं कि मैं भयभीत हूँ। मेरे भय को समाप्त करने के लिए उन्होंने अत्यंत मधुर वाणी में कहा, “वत्स, भयभीत न हों और दासी मंथरा का अभिवादन स्वीकार करें। आप मुझे आसानी से पहचान सकें इसलिए मैं उसी रूप में आईं हूँ जिस रूप में आपने वर्षों पूर्व दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक “रामायण” के उस दृश्य में देखा था जिसमें अयोध्या वापस आने पर श्रीराम अपने समस्त भ्राता गण के साथ मुझसे मिलने आये थे।“
वे बहुत उदास, पश्चाताप की मूर्ति लग रही थीं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार वह उस दृश्य में दिख रहीं थीं। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। समझ में नहीं आ रहा था कि स्वप्न देख रहा हूँ या यह वास्तविकता है। आखिर वह मेरे पास क्यों आईं? समझ नहीं पा रहा था कि जब वे आ ही गईं हैं तो उन्हें कैसे संबोधित करूं, कहाँ बैठायुं, स्वागत करूं या प्रताड़ित करूं? स्थिति को देखते हुए नेपथ्य से गीत-संगीत का अभाव खल रहा था। ऐसे अवसर पर हिंदी फिल्म में अवश्य कुछ गीत-संगीत आता है, जैसे “यह तेरे मन में क्या समाई, ऐसी स्थिति तूने क्यों बनाई?”
कुछ साहस एकत्र कर मैंने हाथ जोड़कर निवेदन किया, “माते मंथरा, मृत्यु लोक वासी इस तुच्छ जीव का प्रणाम स्वीकार करें और सोफे पर आसन ग्रहण करें। आप क्या लेंगी? ठंडा या गर्म?”
मंथरा उवाच, “आर्यपुत्र, सांसारिक वस्तुओं का सेवन मेरे लिए वर्जित है। कृपया आप मेरी व्यथा कथा सुनें और मेरी सहायता करें।”
अपनी अंतरात्मा के प्रभाव से मैंने कहा, ‘भद्रे, कृपया आप सर्वप्रथम आसन ग्रहण करें और मेरी कुछ शंकाओं का समाधान करें। क्या आप इतने युगों तक मृत्यु लोक में ही रहीं हैं? क्या कृपानिधान द्वारा क्षमा प्रदान करने पर भी आपको महानिर्वाण नहीं प्राप्त हुआ? और आपने इस तुच्छ सांसारिक प्राणी के पास आने का कष्ट क्यों किया?”
मंथरा जी भूमि पर आसन ग्रहण करते हुए बोलीं, “आपने मुझे प्रताड़ित नहीं किया इसके लिए कोटि-कोटि धन्यवाद। आप जैसे उदार हृदय वाले मनुष्य के पास आकर सहस्रों वर्षों से तड़पती मेरी आत्मा को कुछ शांति मिली है।”
मैंने हाथ जोड़कर निवेदन किया, “आप मुझसे सहस्रों वर्ष बड़ी हैं। आप इस तरह भूमि पर बैठें और मैं सोफा पर, यह उचित नहीं है। कृपया आप सोफा पर ही अपना आसन रखें।”
मंथरा जी ने बैठे-बैठे ही हाथ जोड़कर कहा, “वत्स, इस सम्मान के लिए मैं आपको हृदय से धन्यवाद देती हूँ परंतु मेरा स्थान यही है। संत तुलसी दास के शब्दों में, ‘’चेरी छोड़ ना होयब रानी।‘ मुझे यहीं बैठ कर अपनी व्यथा कथा सुनाने दें और संभव हो तो मुझे न्याय दिलवाने में मेरी सहायता करें। कौन कहाँ बैठा है, समाज में उसकी स्थिति क्या है, इन सब बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को न्याय मिले।”
मुझे कुछ कहने का अवसर दिए बिना वे अपनी बात कहने लगीं। “हे आर्यपुत्र, अपने प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए आपको मेरी पूरी व्यथा कथा सुननी होगी। क्या बताऊं, मेरे साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ था। मैंने जो कुछ किया, प्रभु की लीला के कारण किया। आपको तो पता ही है, उन दिनों सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं हुआ था। प्रभु की आज्ञा के बिना आर्यावर्त में एक पत्ता भी नहीं डोल सकता था। भला मैं एक दासी प्रभु के विरुद्ध कैसे जा सकती थी? लोगों ने रामचरितमानस में जो भी पढ़ा है या दूरदर्शन पर “रामायण” में जो भी देखा है, वह अधूरा है। जो भी कौतुक हुआ, वह बहुत सोच-विचार कर रचा गया था।”
मैं ध्यान से मंथरा जी की बातों का अर्थ समझने की चेष्टा कर रहा था। मेरे चेहरे के भाव से वे मेरी कठिनाई समझ गईं और मुझे समझाया, “वत्स, मेरी पूरी व्यथा कथा सुनने के बाद आप सब कुछ समझ जाएंगे। धीरज से सुनिए। बहुत आस लेकर आपके पास आई हूँ।”
मैंने हाथ जोड़कर निवेदन किया, “आप सुनाइए। मैं ध्यान मग्न होकर सुन रहा हूँ।”
“वत्स, मैंने बहुत विनती की कि महारानी कैकेई को भड़काने का काम किसी और से कराया जाए। मैं इतिहास में अपना और दासी जाति का नाम कलंकित नहीं होने देना चाहती थी। मैंने तो यह भी कहने का दु:साहस किया कि यदि श्रीराम वास्तव में प्रभु हैं तो इतने बड़े कौतुक की क्या आवश्यकता है? प्रभु अपने सुदर्शन चक्र को आदेश दे दें, बाकी कार्य वह स्वयं ही कर लेगा। परंतु इस दासी की कौन सुनता? प्रभु ने मुझे समझाया कि ऐसा कौतुक नहीं करने से उनका मृत्यु लोक में मानव रूप में आने का तात्पर्य पूरा नहीं होगा और आगे आने वाली पीढ़ियां शिक्षा एवं मनोरंजन के एक महत्वपूर्ण स्रोत से वंचित रह जायेंगी। यह भी कहा कि यदि वे रावण का वध किए बिना राज सिंहासन पर बैठ जाएं तो तात्कालिक समस्याओं में इतने उलझ जाएंगे कि रावण के वध की योजना धरी की धरी रह जाएगी। एक और महत्वपूर्ण कारण था, राज सिंहासन पर बैठने के पहले श्रीराम रावण जैसे महा शक्तिशाली राजा को मार कर अपने सभी शत्रुओं को चेतावनी दे देना चाहते थे कि, आज की भाषा में कहूँ तो, भूलकर भी मुझसे पंगा लिया तो तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा।”
एक क्षण रुक कर मंथरा जी ने अपनी व्यथा कथा आगे बढ़ाई। “प्रभु के अनुसार मुझ में स्वांग भरने की सर्वाधिक क्षमता थी तथा मैं ही महारानी कैकेई की सबसे मुंहलगी थी। बाद में मुझे विश्वास हो गया कि वे कैकेई को साफ बचा लेना चाहते थे क्योंकि वे राजपरिवार की थीं, महारानी थीं। मैं तो उनकी कृपा पर जीवन व्यतीत करने वाली एक दासी थी। आज की भाषा में कहूँ तो, मुझे बलि का बकरा बना कर शक्तिशाली लोगों की प्रतिष्ठा बचानी थी। उन लोगों के दबाव में आकर उनकी योजना के अनुसार कार्य करने को प्रस्तुत हो गई। मैंने यह प्रार्थना अवश्य की कि इतिहास लिखते समय मेरे साथ न्याय हो, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। आप के युग के नेताओं की तरह, मेरी प्रार्थना पर भी उचित अवसर आने पर विचार करने का आश्वासन देकर उन्होंने अपना अभीष्ट करा लिया। मैंने बड़ी निष्ठा से अपनी भूमिका निभाई। महारानी कैकेई को भड़काया कि वे महाराजा दशरथ पर दबाव डालें कि वे कुमार भरत को राजा बनाएं और कुमार राम को चौदह वर्षों के लिए जंगल में भेज दें।”
मैंने कुछ आश्चर्य से पूछा, “क्या प्रभु श्रीराम के युग में भी छल-कपट होता था?”
मंथरा जी ने भी किंचित आश्चर्य से कहा, “वत्स, रामचरितमानस पढ़ने और दूरदर्शन पर “रामायण” देखने के बाद भी आप ऐसा प्रश्न कर रहे हैं? प्रभु श्रीराम का जन्म त्रेता युग में हुआ था, सतयुग में नहीं। त्रेता युग में छल-कपट आरंभ हो गया था तभी तो राम ने छल से बाली का वध किया था। द्वापर युग में छल-कपट की और वृद्धि हो गई और आपके इस कलियुग में तो अधिकतर कार्य छल-कपट से ही होते हैं। खैर, इस बात को छोड़िए और मेरी दुख भरी कथा पर ध्यान दीजिए। आप तो जानते ही हैं, काम निकल जाने के बाद आश्वासन कौन याद रखता है। जिस तरह आज के युग में चुनाव जीतने के बाद नेता लोग अपना वादा भूल जाते हैं, उसी प्रकार उस समय के शासक भी मुझ से किया गया वादा भूल गए।”
कहते-कहते मंथरा जी की आवाज अवरूद्ध हो गई। सच कहता हूँ संपादक जी, उनकी व्यथा कथा सुनकर मेरा मन विद्रोह करने लगा। फिर भी कुछ शंका थी। मैंने प्रश्न किया, “परंतु, दासी श्रेष्ठ, प्रभु ने तो आपको क्षमा कर दिया था। मैंने दूरदर्शन पर इस लीला को देखी है। क्या दूरदर्शन ने हमारे साथ छल किया है?”
एक पीड़ादायक मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, “हे दूरदर्शन प्रेमी, आपने ठीक ही देखा है। परंतु इससे क्या होता है? आज के युग में एक बहुत अच्छी बात अवश्य है। कोई भी शासक के विरुद्ध न्यायालय की शरण में जा सकता है। यह बात दूसरी है कि कभी-कभी न्याय पाने में इतना अधिक समय लग जाता है कि न्याय भी अन्याय जैसा लगने लगता है। मेरे युग में तो राजा ही निर्णय लेते थे कि दोषी कौन है, राजा ही दंड देते थे और राजा ही अंतिम न्यायालय थे। मेरी अवस्था तो प्रभु ने और भी बुरी कर दी। उन्होंने सारे विश्व को बता दिया कि उनके साथ इतने बड़े अन्याय की जड़ में मैं थी फिर भी कृपानिधान ने उदारता से मुझे क्षमा कर दिया। यह तो मुझे दिए गए आश्वासनों के विरुद्ध था।”
“वत्स, यह नहीं भूलें कि विधि-विधान, शासक की आज्ञा और न्यायालय का निर्णय, इन सबसे ऊपर होता है जनमत जिसका आधार अज्ञानता भी हो सकता है। क्षमादान से जनमत नहीं बदलता। अग्नि परीक्षा के पश्चात एक पति के रुप में श्रीराम ने माता सीता को स्वीकार कर लिया परंतु एक शासक के रूप में उन्हें जनमत के आगे झुकना पड़ा। उन्होंने तो विभीषण को भी गले लगाया परंतु आज तक यह नाम अपशब्द माना जाता है। कोई भी अपने पुत्र का नाम विभीषण या पुत्री का नाम कैकेई नहीं रखता। विभीषण जी ने और मैंने बहुत लांछन सहकर भी अपने-अपने कर्तव्य का पालन किया परंतु उसके बदले में हमें केवल प्रताड़ना मिली। इस प्रताड़ना के कारण मैं अपनी भूल के लिए आजीवन पश्चाताप की अग्नि में जलती रही। मृत्यु के पश्चात भी मुझे शांति नहीं मिली। सहस्रों वर्षों तक मैं प्रभु से प्रार्थना करती रही कि वे मेरे साथ न्याय करें। अंत में दयानिधान को मेरे ऊपर दया आई और उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि कलियुग के अंतिम चरण में जब भारत की पावन धरती पर जनतंत्र, न्याय एवं समाज सुधार की हवा जोरों से बहेगी तभी किसी सदआत्मा के प्रयास से समाज में मेरा पुनर्मूल्यांकन होगा, मुझे खोई प्रतिष्ठा मिलेगी और मोक्ष प्राप्त होगा। मुझे यह संदेश मिला है इस धरती पर आप मेरे उद्धारक हो सकते हैं। आपका नाम भी नारायण है।” कहते-कहते मंथरा जी की आँखों में आँसू आ गए।
संपादक जी, नारी के नैनों के नीर मुझे सदा विचलित कर देते हैं परंतु यह समय भावना में बहने का नहीं था। मेरे ऊपर एक महान उत्तरदायित्व आ रहा था और मैं सदा की तरह किसी भी उत्तरदायित्व से बचना चाहता था। टालने के लिए कहा, “हे इतिहास की सर्वाधिक चर्चित दासी जी, धर्म भीरु माता-पिता द्वारा प्रदत इस नाम के कारण भूतकाल में भी मुझे संकट का सामना करना पड़ा था। लोगों ने मुझे कई विभूतियों के साथ जोड़ने का प्रयास किया। मैं कल ही शपथ पत्र द्वारा अपना नाम बदलवा दूंगा और आपको उसकी एक फोटो प्रति दे दूंगा। जीवन की संध्या बेला में मुझे शांति से रहने दें। मैं किसी झमेले में नहीं पड़ना चाहता। मेरे ऊपर कृपा करें। यदि संभव हो तो इतना बता दें कि मेरे नाम से कोई लॉटरी निकलने वाली है कि नहीं। सुना है, आत्माओं को सब पता होता है।”
दासीश्री पर मेरे घिघियाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे अपना कार्य मुझसे ही करवाना चाहती थीं, ठीक उसी तरह जिस तरह प्रभु द्वारा रचित कौतुक में महारानी के कैकेई को भड़काने का कार्य उन्हीं से करवाना था। समय ने उनकी आत्मा को अत्यंत धीर-गंभीर बना दिया था। स्नेह सिक्त स्वर में बोलीं, “पुत्र, मेरी सहायता करने से आप को जो यश मिलेगा उसका लाभ सहस्रों लाटरियों से अधिक होगा। मुझे आपके पास आने की प्रेरणा स्वयं प्रभु ने दी है।”
मैंने निवेदन किया, “आप संत तुलसी दास जी से मिली थीं?”
मंथरा जी ने बताया, “मिली थी, हालांकि उनसे मिलना अत्यंत दुष्कर था। उनके विचारों से तो आप परिचित हैं ही। मेरे और महारानी कैकेई के कारण ही उन्हें नारी जाति से घृणा हो गई। किसी के हस्तक्षेप से एक पल के लिए मिले परंतु वे लिखित प्रमाण चाहते थे। मैंने कहा भी कि मैं अपनी व्यथा कथा लिखकर दे सकती हूँ परंतु वे मेरे वक्तव्य को प्रमाण मानने को तैयार को नहीं हुए और बाद में उन्होंने जो लिखा वह सर्वविदित है। आज के युग में दूरदर्शन ने सबको मेरी नाटकीय भूमिका की याद दिला कर मेरी आत्मा को और बेचैन कर दिया। संभवतः मानव इतिहास में एक अबला के साथ अन्याय का इससे बड़ा उदाहरण नहीं है।”
मुझे मंथरा जी से सहानुभूति हो चली थी परंतु उनके अंतिम वाक्य से मुझे आवेश आ गया। “देखिए मंथरा जी, इस चराचर जगत में सभी प्राणी समझते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है। सीता माता को देखिए। उनके साथ कितना अन्याय हुआ? अग्नि परीक्षा के पश्चात भी उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया गया। रघुनंदन भी इसी कारण बहुत सी महिलाओं का कोप भाजन बने और आप अपने लिए ही रोए जा रही हैं।”
धैर्य की मूर्ति मंथरा जी ने बहुत शांत स्वर में कहा, “सत्य है, सीता माता को राजभवन और गृहस्थ आश्रम के सुख से वंचित होना पड़ा परंतु वे त्याग की मूर्ति मानी गईं। श्रीराम की भी कोई विशेष बदनामी नहीं हुई। आपके पुरुष प्रधान समाज में राम की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। उन्हें “मर्यादा पुरुषोत्म” की उपाधि से अलंकृत किया गया है। आपने दूरदर्शन पर “उत्तर रामायण” देखा होगा। इसके द्वारा समस्त विश्व को बता दिया गया कि जानकी और जानकी बल्लभ के आपस में विचार विमर्श के पश्चात जानकी जी स्वेच्छा से वन चली गईं। मुझे तो ज्ञात नहीं कि वास्तव में ऐसा कुछ हुआ था परंतु ऐसा असंभव भी नहीं लगता। हो सकता है कि सब कुछ समझते हुए भी परम आज्ञाकारिणी सीता माता ने पति की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए राजमहल त्यागने का उनका सुझाव स्वीकार कर लिया हो।
“आप रामानंद सागर जी से मिली थीं? यदि आप मिली होतीं तो वे आपके बारे में भी जनसाधारण को नया ज्ञान दे सकते थे।”
मंथरा जी क्षुब्ध होकर बोलीं, “मिली थी वत्स, मिली थी और सारी सच्चाई बताई भी थी। परंतु कोई लाभ नहीं हुआ। उनका उत्तर था कि उनके अन्वेषकों को ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला जिससे मेरे दावे की पुष्टि हो सके। निवेदन करने पर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे उन निर्माताओं में नहीं हैँ जो नायक या नायिका, खलनायक या खलनायिका के कहने पर कहानी में परिवर्तन कर देते हैं और फिर मेरा दृश्य फिल्माने की सारी तैयारी भी हो चुकी थी। टीवी धारावाहिक “उत्तर रामायण” भी तो उन्हीं की भेंट है।”
मैं अभी भी कोई उत्तरदायित्व नहीं रहना चाहता था अतः सुझाव दिया, “आप राजनेताओं से मिलिए, समाज सुधारकों से मिलिए, न्यायालय की शरण में जाइए। अब तो भारत में स्त्रियों के सम्मान और अधिकार की रक्षा करने के अनेक आयोग हैं। बहुत से अधिवक्ता इस कार्य में स्त्रियों की सहायता करते हैं। आज का भारत एक न्याय प्रिय और प्रगतिशील भारत है।”
मेरे सुझाव ने मंथरा जी को दुखी कर दिया। “राजनेताओं से मैं बहुत डरती हूँ। मैं तो अपने समय के राजनेताओं के कारण ही बदनाम हुई। आपके न्यायालयों एवं आयोगों को भी तो प्रमाण चाहिए और जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है उसकी बात सुने बिना वे कोई निर्णय नहीं लेते। मेरी शिकायत पर वे प्रभु श्रीराम को अपनी बात रखने के लिए किस प्रकार बुलाएंगे? समाज सुधारक भी प्रमाण मांगेंगे। जनमत सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और मेरे पक्ष में जनमत तैयार करने में आप एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।”
“आपको एक और महत्वपूर्ण बात बताऊं जिस पर संभवतः: आपने ध्यान नहीं दिया है। मुझ पर तथाकथित गंभीर आरोप लगाने के बाद भी किसी ने मुझे दंडित नहीं किया, न अंतरिम राजा भरत ने न राजा राम ने। मुझे तो राजमहल से भी नहीं निकाला गया। मैं आजीवन राजमहल का अंग बन कर ही रही। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि सबको पता था कि वास्तव में मैंने केवल आज्ञा का पालन किया था और अपने ऊपर एक कलंक ले लिया ताकि राज परिवार के अन्य सदस्य निष्कलंकित रहें? क्या यह सब जानने के बाद भी आप को ऐसा नहीं लगता कि जनता को संपूर्ण तथ्य का ज्ञान होना चाहिए? मुझे विश्वास है कि संपूर्ण तथ्य का ज्ञान हो जाने पर धीरे-धीरे जनता मुझे निर्दोष समझने लगेगी।”
मंथरा जी जैसी जिद्दी आत्मा से बचना कठिन लग रहा था। उनके उपरोक्त रहस्योद्घाटन के पश्चात तो मुझे उनसे सहानुभूति भी होने लगी। फिर भी मैंने अंतिम प्रयास किया, “हे दासी श्रेष्ठ, मैं एक वयोवृद्ध साधारण मानव आपकी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ इसकी मुझे कोई प्रेरणा नहीं मिली है। हाँ, आशा की एक किरण मुझे दिख रही है। देवी, देवताओं और मुनियों की इस पावन धरती पर एक ही विषय पर या एक ही नाम से अनेक चलचित्र बनाने की परंपरा रही है। धार्मिक विषयों पर तो अनेक चलचित्र बनते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि भविष्य में यह परंपरा टेलीविजन चैनलों पर भी दिखेगी। जिस तरह “रामायण” और “उत्तर रामायण” में राम के चरित्र की रक्षा की गई है उसी प्रकार भविष्य में किसी चलचित्र या टीवी सीरियल में आपको किस तरह छल-कपट से धर्म संकट में फंसाया गया यह दिखाकर आपके साथ न्याय हो सकता है। आप अपना संघर्ष जारी रखें और कृपानिधान से प्रार्थना करें कि वे चलचित्र और टीवी चैनलों के लिए सीरियल बनाने वालों को इसके लिए प्रेरणा दें। आपने हजारों वर्षों तक प्रतीक्षा की है, कुछ वर्ष और करें। आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।”
संभवतः मंथरा जी कुछ आश्वस्त हुईं। बोलीं, “आपकी बातों में कुछ दम है और मुझे विश्वास है कि वृद्धावस्था में भी आप मेरी सहायता कर सकते हैं। मेरा निवेदन है कि आप किसी प्रतिष्ठित पत्रिका या समाचार पत्र में हमारी यह वार्तालाप प्रकाशित करवा दें ताकि पर्दे के पीछे जो कुछ भी हुआ था वह जनता के समक्ष आ जाए। इससे जनमत बनाने में और भविष्य में चलचित्र या धारावाहिक बनाने में सहायता मिलेगी।”
मुझे प्रथम बार अपने मानव जन्म पर गर्व हुआ। छल-कपट का पर्दाफाश करने में मैं भी कुछ भूमिका निभा सकता हूँ। मंथरा जी मेरा गर्व भांप गई। मुझे सचेत करते हुए बोलीं, “वत्स, गर्व करने की अपेक्षा आप अवसर का लाभ उठाएं। कहीं ऐसा न हो कि आप अपने महंगाई भत्ते की चिंता में इतना घुलने लगें कि आप को जो ऐतिहासिक भूमिका निभाने का अवसर मिला है उसे विस्मृत कर दें। आपसे वार्तालाप कर मुझे ऐसा लगने लगा है कि मुझे कुछ और शुभचिंतकों से मिलना चाहिए। विकल्प तो रखना ही पड़ेगा परंतु यदि आपने अपना दायित्व पूरा किया तो आप ही यश के भागी होंगे। अब आज्ञा दीजिए।”
और मंथरा जी अंतर्ध्यान हो गई।
संपादक जी, राज्य परिवहन के रथ पर आरूढ़ होकर राशन की दुकान के लिए प्रस्थान करने के पूर्व मैं आपको यह पत्र भेज रहा हूँ। इसे जनसाधारण तक पहुंचाकर मंथरा जी के पक्ष में जनमत तैयार करने में कृपया अपना योगदान दें। इस पुण्य कार्य में मेरे साथ आप और सभी पाठक गण समान रूप से भागीदार होंगे।
मैं अपनी तरफ से एक छोटी सी टिप्पणी जोड़ना चाहूँगा कि मंथरा जी से वार्तालाप के बाद मुझे विश्वास हो गया है कि प्रभु की इच्छा के बिना वह इतिहास में इतनी बड़ी भूमिका नहीं निभा सकती थीं। मेरी आत्मा कहती है कि अवश्य ही महाराज दशरथ के राज परिवार में कोई राजनीतिक निर्णय लिया गया होगा जिसे ‘अत्यंत गोपनीय, प्रकाशन सार्वजनिक हित के विरुद्ध’ का लेबल लगा कर छिपा दिया गया होगा और समस्त विश्व उस निर्णय से अनभिज्ञ रह गया। यह सनातन सत्य है कि कभी-कभी जो दिखता है वह सत्य नहीं होता और जो सत्य होता है वह दिखता नहीं।
सादर
आपका शुभेच्छु
देवेंद्र नारायण
लेखक की १० कहानियों का संग्रह “ये टेढ़े मेढ़े रास्ते” का Kindle संस्करण Amazon पर उपलब्ध है।
“मंथरा की व्यथा कथा” उसमें सम्मिलित नहीं है।
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