मोक्ष के लिए भूतपूर्व होने की अभिलाषा

अपने बंधु जी एक महान विभूति हैं। भौतिकवादी होने के साथ-साथ वे एक अध्यात्मिक प्राणी भी हैं। लोगों को उनके भौतिकवादी होने का तो ज्ञान है परंतु उनके स्वभाव के आध्यात्मिक पक्ष का ज्ञान उनको अत्यंत निकट से जाननेवालों को ही है। इस अज्ञान के कारण ज्यादातर लोग उन्हें सत्ता से चिपके रहने वाला एक घोर भौतिकवादी समझने की भूल कर बैठते हैं। कम से कम बंधु जी का यही विचार है। उनके आग्रह पर मैंने उनका विशेष इंटरव्यू लिया है। इंटरव्यू में उन्होंने अपने चरित्र के सभी पक्षों पर दिल खोलकर बात की और अपना पक्ष जनता के सामने रखा। इंटरव्यू तो बहुत लंबा था परंतु यहाँ मैं उसका केवल अंतिम भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें बंधु जी ने विस्तार से बताया है कि उनके आध्यात्मिक विचार और भौतिकवादी व्यवहार में कोई विरोधाभास नहीं है बल्कि उनके भौतिकवादी व्यवहार का आधार उनका आध्यात्मिक ज्ञान है और ऐसा व्यवहार मोक्ष के लिए आवश्यक है।

लेखक: “बंधु जी, आपसे बातचीत कर बहुत आनंद आया। अध्यात्म में आपकी इतनी गहरी रुचि है, आध्यात्मिक विषयों का आपको इतना गहरा ज्ञान है, औरों की तरह मुझे भी पता नहीं था। परंतु एक संदेह मुझे परेशान कर रहा है। यदि आप बुरा ना माने तो इस संदेह को दूर करने के लिए कुछ अप्रिय प्रश्न पूछना चाहता हूँ।”

बंधु जी: “निःसंकोच पूछिए। मैं तो जनता का सेवक हूँ। मेरी जिंदगी एक खुली पुस्तक है। मेरे विचारों या कर्मों में ऐसी कोई बात नहीं है जिसे मुझे किसी से छिपाने की आवश्यकता है। मेरा भी आपसे अनुरोध है कि आप अपने दिल में कोई शंका या संदेह लेकर यहाँ से नहीं जाएं अन्यथा इंटरव्यू अधूरा रह जाएगा। इंटरव्यू का उद्देश्य ही शंका समाधान होता है।”

लेखक: “क्षमा कीजिएगा, मुझे तो आपके विचारों और कर्मों में एक भयंकर विरोधाभास दिख रहा है। एक तरफ तो आप अपने को मूलतः अध्यात्म में रुचि रखने वाला व्यक्ति बताते हैं परंतु दूसरी तरफ आपकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की है जो घोर सांसारिक है। यदि साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो, एक ऐसे व्यक्ति की है जो सत्ता की राजनीति में आकंठ लिप्त है। क्या यह विरोधाभास नहीं है? क्या आप कोई स्पष्टीकरण देना चाहेंगे? यदि आपको कोई आपत्ति है तो यह प्रश्न वापस लेता हूँ।”

बंधु जी (मुस्कुराते हुए): “आपका प्रश्न उचित है, स्वभाविक है। वापस लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे पूरा विश्वास था कि आप जैसा अनुभवी पत्रकार यह प्रश्न अवश्य पूछेगा। मैं भी चाहता हूँ कि इस संबंध में लोगों को कोई भ्रम नहीं रहे। परंतु मेरी दृष्टि में तो कोई विरोधाभास है ही नहीं।”

लेखक: “एक तरफ इतने उच्च आध्यात्मिक विचार, दूसरी तरफ घोर सांसारिकता! यह विरोधाभास नहीं तो और क्या है?”

बंधु जी (गंभीर होकर): “क्षमा कीजिएगा, लगता है आपने श्रीमदभागवत गीता का अध्ययन नहीं किया है। गीता में भगवान कृष्ण का अर्जुन को उपदेश हमारा अध्यात्मिक धरोहर है। परंतु उपदेश का उद्देश्य क्या है? अर्जुन को, जो एक राजनीतिक व्यक्ति थे, अपना राजधर्म निभाने के लिए, अपना सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए, प्रेरित करना। कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि अपना राजनीतिक हित साधने के लिए अर्थात राजगद्दी प्राप्त करने के लिए उन लोगों का संहार करने में भी हिचकिचाना नहीं चाहिए जिनकी गोद में खेलकर तुम बड़े हुए हो या जिनसे तुमने शिक्षा ग्रहण की है। कृष्ण ने अर्जुन से कहा, यदि तुम युद्ध जीत गए तो तुम्हें राजगद्दी मिलेगी और यदि मारे गए तो मोक्ष प्राप्त होगा। अर्थात, दोनों हाथ में लड्डू है।”

बंधु जी (कुछ क्षण रूक कर): “मित्र, याद रखिए, अध्यात्म मनुष्य को उसके गृहस्थ जीवन के कर्तव्य से विमुख नहीं करता, उसे पलायनवादी नहीं बनाता बल्कि उसे अपना कर्तव्य पालन करने की शिक्षा देता है। मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करे तभी उसे सद्गति प्राप्त होती है, तभी वह मोक्ष का अधिकारी होता है। जो मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, भगवान उसे कभी क्षमा नहीं करते। इस जन्म में तो वह बेचैन रहता ही है, मरने के बाद भी उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती। आत्मा तड़पती रहती है। अतः हमें सदा अपने कर्तव्य का पालन करते रहना चाहिए। मैं भी अपने राजधर्म का पालन करने के लिए, अपने सांसारिक कर्तव्य पूरा करने के लिए, अध्यात्मिक उपदेशों से प्रेरणा लेता हूँ। इसमें विरोधाभास कहाँ  है? वास्तव में मैं अर्जुन से कम सांसारिक हूँ क्योंकि मैं अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए केवल संवैधानिक एवं वैधानिक मार्ग का अनुसरण करता हूँ। मैं सत्ता के लिए किसी की हत्या नहीं करता।”

लेखक: “मैं ठीक-ठीक समझा नहीं। कृपया स्पष्ट करें?”

बंधु जी: “मैं आपको आज के युग का एक उदाहरण देता हूँ। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के पूर्व ही अपने योगी जी ने सन्यास ले लिया परंतु उन्होंने समाज के प्रति अपने कर्तव्य से कभी मुख नहीं मोड़ा। उन्होंने अपने निजी लाभ के लिए नहीं परंतु समाज की सेवा के लिए राजनीति में प्रवेश किया। एक आध्यात्मिक व्यक्ति होने के साथ-साथ उन्होंने राजनीति को भी अपने जीवन का एक अभिन्न अंग बना लिया।”

लेखक: “क्या आपका लक्ष्य भी किसी राज्य का मुख्य मंत्री बनने का है?”

बंधु जी (हल्के से मुस्कुराते हुए): “मैं तो केवल राजनीतिक जीवन के आध्यात्मिक आधार का एक उदाहरण दे रहा था।“

लेखक: “राजनीतिक जीवन में आपका लक्ष्य क्या है?

बंधु जी: “मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है। मैं केवल एक राजनीति प्राणी ही नहीं, राजनीति मेरा प्राण है, मेरा जीवन है। मैं चाहता हूँ कि अपना राजनीतिक कर्तव्य पूरी तरह से पालन करूं। मुख्य मंत्री का पद मेरा लक्ष्य नहीं है। मैं चाहता हूँ, इस क्षेत्र के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाऊँ अन्यथा मेरा जीवन सफल नहीं होगा, मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी और मुझे मोक्ष नहीं मिलेगा। मेरा आध्यात्मिक ज्ञान मुझे यही सिखाता है। आशा है, आप समझ गए होंगे। जिस तरह द्रौपदी को जीतने के लिए अर्जुन का ध्यान केवल मछली की आँख पर था, जिस तरह कृष्ण ने अर्जुन को अपना सारा ध्यान राजगद्दी पर देने को कहा, उसी तरह मेरा सारा ध्यान सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर है।”

लेखक: “जी हां, ऐसा ही प्रतीत होता है। आप एक सांसारिक और राजनीतिक प्राणी के नाते सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचना चाहते हैं। शिखर पर पहुँचने पर ही आपकी आत्मा को शांति मिलेगी और आप को मोक्ष प्राप्त होगा। आपका आध्यात्मिक ज्ञान यही कहता है, आप यही बताना चाहते हैं न?”

बंधु जी: “प्रसन्नता हुयी कि आप मेरी बात ठीक-ठीक समझ गए। यही तो पत्रकारों की विशेषता है। वे विषय के मर्म को तुरंत पकड़ लेते हैं।”

लेखक: “बंधु जी, क्या आपको विश्वास है कि आप सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाएंगे? यदि मैंने आप का तात्पर्य ठीक-ठीक समझा है तो जिस शिखर की आप बात कर रहे हैं उस पर पहुँचने के लिए अनेक लोग प्रयत्न कर रहे हैं। आपने भी प्रयत्न किया परंतु सफल नहीं हो सके। क्या आप जीवन पर्यंत प्रयत्न करते रहेंगे?”

बंधु जी (दर्द भरी आवाज में): “यही तो समस्या है। अनेक लोग उम्मीदवार हैं परंतु शिखर पर एक समय एक ही व्यक्ति बैठ सकता है। परंतु बारी-बारी से बैठने के बजाय सब एक दूसरे की टांग  खींचते रहते हैं। उन्हें डर है कि जो भी शिखर पर पहुँच जाएगा, वह वहाँ जमकर बैठ जाएगा और दूसरों को अवसर नहीं देगा। यह डर गलत भी नहीं है। आपने देखा ही है कि कई लोग 10 वर्ष या उससे भी ज्यादा देर तक बैठे रहे। यह खतरा आज और भी ज्यादा है। ऐसे ही स्वार्थी लोगों के कारण ही मैं आज भी एक उम्मीदवार हूँ, भूतपूर्व नहीं।”

लेखक: “आपके विचार में सर्वोच्च शिखर पर किसी को कम से कम कितने दिनों तक और अधिक से अधिक कितने दिनों तक रुकना चाहिए?”

बंधु जी: “यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है। आत्मा की शांति के लिए अर्थात मोक्ष प्राप्ति के लिए शिखर पर बहुत दिनों तक बैठने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक बार, जीवन में केवल एक बार, वहाँ पहुँच कर कुछ दिन रुक कर स्वर्गीय सुख का आनंद उठा लिया, यही उद्देश्य होना चाहिए। तभी तो सभी मुमुक्षुओं यानी मोक्ष चाहने वालों को अवसर मिलेगा। साफ-साफ शब्दों में कहें तो इतना कम नहीं रुकना चाहिए कि प्रतीक्षा करते हुए लोग आपके हाथ में सामान देख कर पूछने लगें कि ‘आप आ रहे हैं या जा रहे हैं?’ और इतना अधिक भी नहीं रुकना चाहिए कि अन्य मुमुक्षुओं का धीरज समाप्त हो जाए जैसा अक्सर देखने में आया है, विशेषकर आजकल। जब धीरज समाप्त होने लगता है तो बहुत से मुमुक्षु विद्रोह कर देते हैं या गाली-गलौज या दोनों पर उतर आते हैं। मेरे विचार में अधिकतम सीमा छह महीने की होनी चाहिए। सामान्य समय में कम से कम तीन महीने रुकना चाहिए परंतु आपात स्थिति में दस-बारह दिनों में ही वापस आ जाना चाहिए। जहाँ तक मेरा प्रश्न है मैं तो एक संतोषी प्राणी हूँ। मेरे लिए तो तीन महीना ही पर्याप्त है। मैं तो घोषणा करता हूँ कि

‘चाह नहीं है

शिखर पर जमकर,

चिरकाल के लिए के लिए बैठ कर,

अन्य मुमुक्षुओं को तरसाउँ, तड़पाउँ।

 

चाह यही है,

एक बार कुछ दिनों तक

सत्ता की कुर्सी पर बैठ कर,

सत्ता का सुख भोग कर,

आजीवन भूतपूर्व होने का सम्मान पाऊँ।”

 

लेखक: “वाह, आप तो कविता भी करते हैं।”

बंधु जी (प्रसन्न होकर): “अरे, कविता क्या, कभी-कभी तुकबंदी कर लेता हूँ।”

लेखक: “अच्छा, यह बताइए, क्या आपके विरोधी आपके आश्वासन का विश्वास करेंगे? क्या वे आपका सुझाव स्वीकार करेंगे?”

बंधु जी (दुखी आवाज में): “यही तो दुख है। कितना अच्छा होता यदि सभी विरोधी दल एक महागठबंधन बना लेते और आपसी समझौते के आधार पर बारी-बारी से कुछ दिन सर्वोच्च शिखर पर बैठ कर वापस आ जाते। आज जो स्थिति है उसमें अपने को सबसे ऊपर समझते हैं वे कुछ महीनों के लिए भी दूसरे का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। क्षेत्रीय नेताओं ने तो और भी मुसीबत खड़ी कर दी है। उन्हें भय है ऐसे अखिल भारतीय महागठबंधन में उनका अस्तित्व खो जाएगा। व्यावहारिक बात यह है कि कोई भी क्षेत्रीय नेता केवल अपने दम पर सर्वोच्च शिखर पर नहीं पहुँच सकता है परंतु वह इस बात को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

लेखक: “क्या आप जैसा महागठबंधन चाहते हैं वह कभी बन पाएगा?”

बंधु जी: “मैं एक आशावादी इंसान हूँ। आशा ही नहीं, बल्कि मुझे विश्वास है कि धीरे-धीरे आम सहमति हो जाएगी और लोग मेरी बात समझ जाएंगे कि आम सहमति से एक-एक कर शिखर पर जाने में ही सबका भला है क्योंकि इसी से सबको अवसर प्राप्त होगा। एक बात…..।”

(कुछ देर रुक कर) “एक बात स्पष्ट है। जब हमारा जनतंत्र नया था, उस समय सर्वोच्च शिखर के दावेदार नगण्य परंतु अत्यंत सशक्त थे। जो व्यक्ति शिखर पर बैठ जाता था वहाँ से हटने का नाम नहीं लेता था। उसे वहाँ से हटाने की किसी की हिम्मत भी नहीं होती थी। अधिकतर लोग नीचे चोटियों पर पहुंचकर ही संतुष्ट एवं प्रसन्न हो जाते थे। जनतंत्र के विकास के साथ-साथ सर्वोच्च शिखर के दावेदारों की संख्या भी बढ़ी। देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के क्रम में आपसी विरोध भी बढ़ा और एक दूसरे की टांग खींचने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। परंतु अब हमारे जनतंत्र में परिपक्वता आ गई है, मैं और मेरे साथी इस प्रयास में लगे हैं कि केंद्र में सत्ता से बाहर सभी राजनीतिक दल एक मंच पर इकट्ठे हो जाएं और आम सहमति से न्यूनतम कार्यक्रमों जिसे आप अंग्रेजी में ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ कहते हैं, की सूची बना ले जिसमें पहला कार्यक्रम होगा बारी-बारी से सर्वोच्च शिखर पर बैठना।”

लेखक: “आपकी इस योजना में यह कैसे तय होगा कि कौन पहले बैठे और कौन सबसे अंत में?”

बंधु जी: “आपका प्रश्न बहुत उचित है। इसके लिए हम सब दो उपायों पर विचार कर रहे हैं। एक उपाय हैं, लोक सभा में महागठबंधन में सम्मिलित सभी राजनीतिक पार्टियों के सदस्यों की संख्या के अनुसार क्रम बना लिया जाए; जिस दल के पास सबसे ज्यादा सदस्य हैं उस दल के नेता को शिखर पर बैठने का पहला अधिकार होगा। परंतु यदि पार्टियों के सदस्यों की संख्या में मामूली अंतर है तो उम्मीदवारों का क्रम लॉटरी से तय किया जा सकता है ताकि किसी को शिकायत का अवसर नहीं मिले। ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की नीति अपनानी चाहिए। यही तो जनतंत्र का मूल उद्देश्य है।’

लेखक: ”लॉटरी ही क्यों? और भी विकल्प हो सकते हैं जैसे मल्ल-युद्ध या दौड़ प्रतियोगिता।”

बंधु जी: “आप तो मजाक करने लगे। इस उमर में यह सब कैसे हो सकता है?”

लेखक: “मजाक नहीं कर रहा था परंतु उम्र के बारे में मैंने नहीं सोचा था। खैर, इस बात को छोड़िए। एक और गंभीर समस्या की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। कई पार्टी में शिखर पर पहुँचने के दावेदार एक से ज्यादा भी हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में क्या होगा?”

बंधु जी: “देखिए, यह हर पार्टी का अंदरूनी मामला है जिसे पार्टी के अंदर ही तय करना पड़ेगा। एक अच्छी बात यह है कि अधिकतर पार्टियों में सर्वोच्च शिखर का दावेदार एक ही है। इससे पता चलता है कि हमारा जनतंत्र परिपक्व होता जा रहा है। जिस तरह सभी पर्वतारोहियों का लक्ष्य माउंट एवरेस्ट नहीं होता, उसी तरह हमारे क्षेत्र में भी सभी लोग सर्वोच्च शिखर पर चढ़ने की कामना नहीं करते। अधिकतर लोगों को अपनी सीमा का ज्ञान है। वे निचली चोटियों पर पहुंचकर ही संतुष्ट हो जाते हैं।”

लेखक: “क्या निचली चोटियों पर पूरे पाँच बरस तक बैठने की अनुमति होगी?”

बंधु जी: “नहीं, बिल्कुल नहीं। किसी को भी एक निश्चित समय से ज्यादा देर तक बैठे रहने की आज्ञा नहीं होगी। आपको तो पता ही होगा कि पर्वतारोहण के लिए भी ऐसे ही नियम है। निचली चोटियों पर भी किसी को वर्षों तक बैठने की अनुमति नहीं होती है। परंतु निचली चोटियों पर बैठने वाले मंत्रियों को एक बार से ज्यादा वहाँ बैठने की अनुमति होगी ताकि उन्हें भी सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने का अवसर मिलता रहे।“

लेखक: “क्या उन नेताओं को जो सर्वोच्च शिखर पर नहीं पहुँच सके, मोक्ष नहीं मिलेगा?”

बंधु जी: “यह इस बात पर निर्भर है कि क्या ऐसे नेता निचली चोटियों पर बैठकर ही संतुष्ट हो जाते हैं। जो लोग अपनी सीमा जानते हैं वे निचली चोटियों पर पहुंचकर ही संतुष्ट हो जाते हैं। मोक्ष के लिए अपने जीवन से संतुष्ट होना आवश्यक है।“

लेखक: “अभी भी मेरे दिमाग में एक प्रश्न में बार-बार उठ रहा है। सभी विरोधी दलों को एक मंच पर लाने का प्रयत्न कई बार हुआ है परंतु सफल नहीं हो सका। अब कैसे सफल हो जाएगा?”

बंधु जी: “क्षमा कीजिएगा, आप शायद स्वतंत्र भारत का इतिहास भूल रहे हैं। प्रयत्न आंशिक रूप से सफल भी हुआ है। 1977 का प्रयास एक बहुत अच्छा उदाहरण है। आंशिक रूप से सफल इसलिए कह रहा हूँ कि सर्वोच्च शिखर पर बैठे नेता दूसरों को अवसर नहीं देना चाहते थे। परिणामस्वरूप अपना धीरज खो बैठे एक दूसरे नेता ने विद्रोह कर दिया और बैठे रहने का इरादा रखने वाले नेता को जबरदस्ती धक्का मार कर गिरा दिया और स्वयं बैठ गए। 1990 के दशक में कई लोगों को बारी-बारी से बैठने का अवसर मिला। इसी कारण कम समय में कई नेताओं को ‘भूतपूर्व प्रधान मंत्री’ बनने का अवसर मिला। सभी पुराने अनुभवों का लाभ उठा कर किया गया प्रयत्न अवश्य सफल होगा। ऐसा मेरा विश्वास है। मुझे विश्वास है कि हम आपसी सहमति से एक विशाल गठबंधन बना लेंगे।”

लेखक: “आपके दृढ़ निश्चय और विश्वास को देख कर मुझे पूरी आशा है कि आप का अभियान सफल होगा परन्तु….।”

बंधु जी: “आप अभी भी किंतु-परन्तु के जाल में फंसे हुए हैं? बताइए यह कौन सा “परन्तु” है।”

लेखक: “एक आशंका हो रही है। यदि आप बुरा न माने तो मैं उसे दूर करना चाहूँगा।”

बंधु जी: “आज आपका बंधु आपकी सभी शंकाओं और आशंकाओं को दूर देगा। समझ लीजिए, आज “शंका-आशंका निवारण दिवस” है। नि:संकोच पूछिए। आप की शंकाओं और आशंकाओं को दूर करना मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ।”

लेखक (हिचकिचाते हुए}: “सोच रहा हूँ…..अपनी आशंका…..आपके सामने कैसे रखूं क्योंकि इससे आपकी योजना की उपयोगिता पर…..ही प्रश्न उठ जाता है। खैर, आपने पूछने का साहस दिया है इसलिए पूछ ही लेता हूँ। आशंका यह है यदि सर्वोच्च शिखर पर किसी भी नेता को छह महीने से ज्यादा नहीं बैठने दिया जाएगा…..अर्थात…..यदि कोई भी व्यक्ति छह महीने से ज्यादा प्रधान मंत्री के पद पर नहीं बैठ सकेगा तो इससे सरकार में अस्थिरता आ जाएगी।“

बंधु जी: “अस्थिरता कैसे आ जाएगी? वास्तव में इससे अस्थिरता समाप्त हो जाएगी। मैं अपनी बात स्पष्ट करता हूँ। यहाँ हम उस भारत की बात नहीं कर रहे हैं जिसमें एक शक्तिशाली दल का लोकसभा में बहुमत है और उसका एक शक्तिशाली नेता है जिसका कोई विरोध नहीं कर सकता; वह एक तानाशाह की तरह शासन करता है। हम उस स्थिति की भी बात नहीं कर रहे हैं जिसमें एक दल का बहुमत नहीं है लेकिन किसी दूसरे दल का बाहरी समर्थन लेकर वह दल सरकार बनाता है। ऐसी सरकार में कोई स्थिरता नहीं होती। बाहर से समर्थन देने वाला दल जब चाहे अपना समर्थन वापस ले लेता है। ऐसी स्थिति हमने देखी भी है। हम उस स्थिति की भी बात नहीं कर रहे हैं जिसमें राजनीतिक मजबूरियों के कारण एक मिली-जुली सरकार बनती है और छोटे-छोटे दल भी गठबंधन से अलग होने की धमकी देकर निरंतर अस्थिरता बनाए रखते हैं। हम उस नए भारत की बात कर रहे हैं जिसमें सिद्धांतों के आधार पर महागठबंधन बनता है और पहला सिद्धांत है, या कहें कि कार्यक्रम है, कि आरंभ में ही यह निर्धारित कर लिया जाता है कि कौन नेता किस क्रम में कितने समय के लिए प्रधान मंत्री बनेगा। सरकार चलती रहेगी, केवल प्रधान मंत्री बदलता रहेगा। अब आप बताइए यह स्थिरता है या अस्थिरता?”

लेखक: “यदि हर कुछ महीने बाद प्रधान मंत्री बदल जाता है तो हर बार नया मंत्रिमंडल बनेगा। यह अस्थिरता नहीं तो और क्या है?”

बंधु जी: “क्षमा कीजिएगा। शायद इस नई व्यवस्था को मैं ठीक से नहीं बता सका। इस व्यवस्था में मंत्रिमंडल का एक सदस्य प्रधान मंत्री बन जाएगा और रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए एक नए सदस्य को सम्मिलित किया जाएगा।”

लेखक: “परंतु आप की व्यवस्था में तो कोई मंत्री पद पर भी छह महीने से ज्यादा नहीं रख सकता। इससे तो अस्थिरता और बढ़ जाएगी। क्या मैं गलत कह रहा हूँ?”

बंधु जी: “मैं मानता हूँ कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां आएंगी। न्यूनतम कार्यक्रम बनाते समय हम इन सभी बातों का ध्यान रखेंगे। परंतु एक बात समझ लीजिए। भविष्य में महागठबंधन की ही सरकार बनेगी और देश में प्रजातंत्र रहे इसके लिए बननी भी चाहिए। ऐसी सरकार में स्थिरता लाने के लिए जिन सिद्धांतों पर हम विचार-विमर्श कर रहे हैं, उन सिद्धांतों के बिना कभी स्थिरता नहीं आ सकती। किसी भी महागठबंधन को पाँच वर्ष तक शासन में रहने के लिए कुछ स्थाई सिद्धांतों का पालन तो करना ही पड़ेगा अन्यथा महागठबंधन में सम्मिलित कोई भी दल अलग होकर सरकार को गिरा सकता है और आम चुनाव की आवश्यकता पड़ सकती है। अब आप ही बताइए ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में स्थिरता बनाए रखने के लिए और दूसरा उपाय क्या है?”

लेखक: “आप ठीक ही कह रहे हैं। महागठबंधन की सरकार पाँच बरस तक चलती रहे इसके लिए कुछ मौलिक परिवर्तन तो करना ही पड़ेगा।”

बंधु जी: “मुझे प्रसन्नता है कि मैं आप की शंका और आशंका का निवारण कर सका।”

लेखक: “एक बार ‘भूतपूर्व’ हो जाने के बाद क्या आप पुनः सर्वोच्च शिखर पर बैठने का प्रयास करेंगे?”

बंधु जी: “मैंने कुछ देर पहले ही आपसे कहा था और एक बार फिर स्पष्ट घोषणा करता हूँ कि मैं एक ही बार केवल एक ही बार, वह भी केवल तीन महीने के लिए सर्वोच्च शिखर पर बैठना चाहता हूँ। मोक्ष प्राप्ति एक ही बार होती है। राजनीतिक जीवन में भी मोक्ष प्राप्ति के लिए एक ही बार ‘भूतपूर्व’ होना पर्याप्त है। यदि कोई नेता बार-बार भूतपूर्व बनाने का लालच करता है तो यह अन्य मुमुक्षुओं के साथ अन्याय होगा। एक ही व्यक्ति बार-बार ‘भूतपूर्व’ नहीं हो सकता। एक ही व्यक्ति का बार-बार भूतपूर्व होना आध्यात्मिक एवं नैतिक दृष्टि से गलत है क्योंकि इससे अन्य उम्मीदवारों का अवसर मारा जाता है। भूतपूर्व होने के सम्मान का लाभ उठाने के लिए एक ही अवसर पर्याप्त है।”

लेखक: “एक अंतिम प्रश्न। भूतपूर्व हो जाने के बाद आप का कार्यक्रम क्या होगा अर्थात आप क्या करेंगे? जो चाहते थे वह मिल गया। उसके बाद?”

बंधु जी: “भूतपूर्व हो जाने के बाद मेरा कार्यक्रम अभी से निश्चित है। अपना सारा समय अन्य मुमुक्षुओं का मार्गदर्शन करने में लगाऊंगा, “भूतपूर्व” होने में उनकी सहायता करूंगा। मेरी हार्दिक इच्छा है कि भूतपूर्व हो जाने के बाद सभी “भूतपूर्व” जनों का एक संगठन बनाऊं ताकि अधिक से अधिक लोगों यह सहायता की जा सके।”

लेखक: “आप जनता के नाम कोई संदेश देना चाहेंगे?”

बंधु जी: “अवश्य। मैं आप से यह निवेदन करने ही वाला था। केवल संदेश ही नहीं, मैं जनता और सभी राजनीतिक दलों को कुछ  महत्वपूर्ण सुझाव भी देना चाहता हूँ। आज हर स्तर पर राजनीतिक क्षेत्र में बहुत बेचैनी और असंतोष है। क्रोध भी है। जो सत्ता में नहीं हैं वे विधान सभाओं और संसद को कार्य नहीं करने दे रहे हैं। सड़कों पर और संसद के अंदर असंतुष्ट और क्रुद्ध लोगों का प्रदर्शन हो रहा है। संसद के अंदर तोड़फोड़ की घटना भी होने लगी है। कुछ विधान सभाओं में तो मारपीट की नौबत आ जाती है। कर्मठ और अनुभवी नेता दल बदल रहे हैं। इन सब का कारण वह नहीं है जो विद्रोही नेता बताते हैं। सिद्धांत या देश की समस्याओं को लेकर लड़ाई नहीं है। मूल कारण सत्ता में नहीं रहने के कारण कुंठा, हताशा, बेचैनी और क्रोध है। भविष्य में भी सत्ता नहीं मिलने के डर ने नेताओं को और भी उग्र बना दिया है। जब तक नेताओं के अंदर ऐसी निराशा रहेगी, ऐसा डर रहेगा तब तक हमारे देश में संसदीय व्यवस्था सुचारु रुप से नहीं चल सकती।”

(बंधु जी आगे बोलने के पहले कुछ क्षण के लिए रुक गए। इसका लाभ उठाते हुए लेखक ने एक स्पष्टीकरण मांग लिया।)

लेखक: “क्षमा कीजिएगा बंधु जी, प्रजातंत्र में कुछ दल तो सत्ता के बाहर रहेंगे ही। प्रजातंत्र की सफलता के लिए शासक दल के  अतिरिक्त विरोधी दल का होना भी आवश्यक है। विरोधी दलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। क्या आपको यह नहीं लगता कि विरोधी दलों के नेताओं को यह समझना चाहिए और राजनीतिक लड़ाई चुनाव के समय ही लड़नी चाहिए?”

बंधु जी: “सैद्धांतिक रूप से आपकी बात बिल्कुल ठीक है परंतु व्यवहारिक बात यह है कि हमारे देश में सत्ता से बाहर रहने वाले नेता बहुत देर तक धीरज नहीं बनाए रख सकते हैं और वह भी उस स्थिति में जब आने वाले चुनाव में भी उन्हें सत्ता मिलने की आशा नहीं हो। इच्छा पूर्ति की आशा से ही धीरज मिलता है। सत्ता के बिना 5 बरस जैसे-तैसे काट सकते हैं परंतु यदि 5 वर्ष के बाद में कोई आशा की किरण नहीं दिखे तो ये 5 वर्ष 500 वर्ष लगने लगते हैं। कब तक कोई इंतजार करेगा? राजनीति में लोग सत्ता के लिए आते हैं, राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए आते हैं, विरोधी दल का रोल अदा करने के लिए नहीं। इसलिए मैं कुछ महत्वपूर्ण सुझाव देना चाहता हूँ।”

लेखक: “आपका सुझाव क्या है, आप स्पष्ट रुप से बताइए मैं इसे जरूर सार्वजनिक रूप से देश के सामने प्रस्तुत कर दूंगा।”

बंधु जी: “मेरा दो सुझाव है। एक सुझाव तो यह है कि संविधान में संशोधन कर लोक सभा और विधान सभाओं का कार्यकाल 4 वर्ष कर दिया जाए ताकि प्रतीक्षा का समय कम हो जाए। दूसरा सुझाव है कि कोई भी राजनीतिक दल या गठबंधन लगातार दो बार सत्ता में नहीं रहे। जिस राजनीतिक दल या गठबंधन को चुनाव के बाद सत्ता मिलती है वह अगले चुनाव के बाद विरोधी दल का रोल अदा करे।” 

लेखक: “लेकिन इससे हम और आप कैसे तय कर सकते हैं? यह तो जनता तय करती है कि कौन सत्ता में आए और कौन सत्ता के बाहर रहे।”

बंधु जी: “जनता तो तब तय करेगी जब उसके पास ऐसा विकल्प होगा। संविधान में संशोधन कर या कोई विधेयक बना  कर ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए कि हर चुनाव में सत्ताधारी दल या गठबंधन केवल आधी सीटों पर ही चुनाव लड़ सकता है। ऐसी व्यवस्था से सब को बारी-बारी से सत्ता में रहने का अवसर मिल जाएगा और असंतोष समाप्त हो जाएगा। अब आप इस सुझाव को मेरे पहले दिए गए सुझाव के साथ जोड़कर देखें। एक गठबंधन 4 साल के लिए सत्ता में है। इन 4 सालों में उसके नेताओं को बारी-बारी से मंत्री पद और प्रधान मंत्री का पद मिल रहा है। सभी प्रसन्न हैं, संतुष्ट हैं। 4 वर्ष के बाद आज का विरोधी गठबंधन सत्ता में आ जाएगा और उसके नेताओं को भी बारी-बारी से मंत्री पद और प्रधान मंत्री पद मिलेगा। अब आप ही बताइए, क्या इससे असंतोष समाप्त नहीं हो जाएगा? आज की स्थिति को देखते हुए इसी व्यवस्था से असंतोष समाप्त होगा और संसद और विधान सभाओं में शांतिपूर्वक काम हो सकेगा।”

बंधु जी ने अपने मौलिक सुझाव से मुझे निरुत्तर कर दिया। देश के नेताओं में व्यापक असंतोष को देखते हुए मुझे मानना पड़ा कि उनका सुझाव समय की मांग है।

इंटरव्यू की समाप्ति के पश्चात मैंने बंधु जी को अपना बहुमूल्य समय देने के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद दिया। बंधु जी बहुत भावुक हो गए। अपने दोनों हाथों से मेरा दोनों हाथ पकड़ कर बोले, “धन्यवाद तो मुझे देना चाहिए कि आपने इस इंटरव्यू के द्वारा मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट करने और अपना संदेश देने का अवसर दिया। आज हमारा जनतंत्र एक अत्यंत नाजुक मोड़ पर है। हम सब एक डगमगाती नैया में सवार हैं। ऐसी परिस्थिति में हम सब को एक दूसरे की टांग खींचने के बजाय एक-दूसरे से सहयोग करना चाहिए ताकि हम सब अपने कर्तव्य का पालन कर सकें, भूतपूर्व होकर जीवन को सफल बनाएं और मोक्ष के अधिकारी हों। यही कल के भारत का राजनीतिक दर्शन होगा। यही युग की मांग है। मुझे पूरा विश्वास है कि हम कामयाब होंगे एक दिन और वह दिन दूर नहीं है।“

देवेन्द्र नारायण 

@narain41

यह कहानी “ये टेढ़े मेढ़े रास्ते” कहानी संग्रह से ली गयी है जिसका kindal संस्करण Amazon पर उपलब्ध है.

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